पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३४८

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३३८ अभिधर्मकोश वैभाषिक-अतः महाभूमिक का क्या अर्थ है ? सौत्रान्तिक-तीन भूमि है : १. सवितर्कसविचार : कामधातु और प्रथम ध्यान २. अवितर्कसविचार : ध्यानान्तर; ३, अवितर्कअविचार : द्वितीयादि ध्यान (८.२३सी); अन्य तीन भूमि : कुशल, अकुशल, भव्याकृत [अर्थात् कुशल, अकुशल, अव्याकृत धर्म]; अन्य तीन भूमि : शैक्षी, अशैक्षी, नैवशैक्षीनाशैक्षी [अर्थात् शैक्ष-अशैक्ष के अनास्रव धर्म और सास्रव धर्म, २.७० सी]-इन सव भूमियों में (एतस्यां सर्वस्यां भूमी) [व्या ३०८. ३२] जो चैत्त धर्म पाये जाते हैं उन्हें महाभूमिक कहते हैं [यह वेदना, चेतना है, यथा २.२४ में]; जो कुशल भूमि में ही पाये जाते हैं वह कुशलमहाभूमिक कहलाते हैं [यह श्रद्धादि हैं, यथा २. २५ में]; जो केवल क्लिष्ट भूमि में पाये जाते हैं वह क्लेशमहाभूमिक कहलाते हैं [यह [१०५] अविद्यादि हैं, यथा २.२६ में]---किन्तु यह सब धर्म महाभूमिक, कुशलमहाभूमिक, क्लेशमहाभूमिक इसलिये कहलाते हैं क्योंकि यह स्वभूमि में यथासंभव होते हैं : यह वहां पर्याव्य से होते हैं, सब युगपत् नहीं होते। यथा वेदना सब भूमियों में होता है जैसे संज्ञा, चेतना आदि भी होते हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि प्रत्येक चित्तावस्था में वेदनादि यह सब धर्म होते हैं।' कुछ आचार्यों का मत है कि अकुशल महाभूमिक पहले पठित नहीं थे, पश्चात् अध्यारोपित किये गये हैं। सूत्र में पाठ होने से यह विचार उत्पन्न हुआ। वैभाषिक-यदि वेदना स्पर्श से उत्तरकाल की है तो आपको इस सूत्र का अवधारण करना होगा : "चक्षु और रूपप्रत्ययक्श चक्षुर्विज्ञान उत्पन्न होता है; त्रिक-संनिपात स्पर्श है। वेदना, संज्ञा और चेतना सहजात हैं।" 4 i १ वभाषिकों का महाभूमिकवाद २.२३ सो और आगे की कारिकाओं में व्याख्यात है (अनुवाद, पृ० १५०, पृ० १५३, १५५ में अधिमुक्ति के स्थान में अधिमोक्ष का आदेश कीजिये) चत्त-सम्बन्ध से असंस्कृत यहां नहीं कहे गये हैं।" परमार्थ का अनुवाद :"प्रथम तीन भूमियों में"; शुआन चाड़ "प्रथम भूमियों में "; व्याख्याः सवितर्कसविचार भूमि में। [च्या ३०८.३२] ते पुनयंथासम्भवम् । ये यस्यां सम्भवन्ति ते तस्यां पर्यायेण. .व्या ३०९.२]-- इस वाद का व्याख्यान द्वितीय कोशस्यान, अनुवाद पृ० १६०, १७५ में है। व्याख्या यहाँ पंचस्कन्धक [यह वसुबन्धु का ग्रन्य है] (तिब्बती विनय, ५८) के कुछ निर्देश उद्धृत करती है। हमने उन्हें द्वितीय कोंशस्थान, अनुवाद पृ० १५४ में उक्त किया है। (चन्द्रकोति का एक पंचस्कन्धक है, तिब्बती विनय, २४] अकुशलमहाभूमिकास्तु पाठप्रसंगेन आसंज्ञिताः (व्याख्या का पाठ 'आसंहिताः') (अध्यारो- पिताः पश्चात) पूर्व न पठयन्ते स्म। [च्या ३०९.१५] प्रकरणपाद में चत चतुर्विध पठित है: महाभूमिक, कुशलमहाभूमिक, क्लेशमहाभूमिक, परोत्तक्लेशमहाभूमिक, द्वितीय कोशस्थान, अनुवाद १०१५१ और१६४ देखिये) [च्या ३०९.१८] सूत्र में अकुशल कुशल का प्रतिपक्ष है। संयुक्त, ११,२, १३, ४(कोश,९. अनुवाद पृ०.२४५ में यही सूत्र उद्धृत है), संयुत्त, २.७२,४.३३ इत्यादि चक्खं च पटिच्च रूपे चप्पन्नति चक्षु- 7 . .