पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३५०

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३४० अभिधर्मकोश गये हैं क्योंकि उनका एक ही आलम्बन है-यह हमारा मत है अथवा क्योंकि, जैसा आप कहते हैं, क्षण-नियम है अर्थात् जिस क्षण में प्रतिसंवेदन करता है उसी क्षण में चेतना करता है, एवमादि। वैभाषिक'--'संसृष्ट' शब्द से उन धर्मों से अभिप्राय है जिनका सहभाव है। वास्तव में यह वचन है कि आयु और उष्मक सहभाव के अर्थ में संसृष्ट हैं। यह इसलिये संसृष्ट नहीं हैं कि इनका सामान्य आलम्वन है, क्योंकि इनका कोई आलम्बन नहीं है। इससे क्षण-नियम सिद्ध होता है। पुनः सूत्रवचन है कि "त्रिक संनिपात स्पर्श है।" त्रिक-सन्निपात के बिना विज्ञान कैसे होगा? स्पर्श के बिना त्रिक-संनिपात कैसे होगा? अतः सर्व विज्ञान स्पर्शसहगत है और सर्व स्पर्श वेदनादिसहगत है। किन्तु यह विवाद हमको बहुत दूर ले जायगा । हम प्रस्तुत विषय पर वापस आते हैं। हमने चैतसी वेदना का संक्षेप में निर्देश किया है। ३२ सी-डी. यही वेदना मनोपविचारों के कारण १८ प्रकार की है।' [१०८] चैतसी वेदना के १८ प्रकार हैं क्योंकि ६ सौमनस्योपविचार, ६ दौर्मनस्योपविचार और ६ उपेक्षोपविचार (२.७) हैं : रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्प्रष्टव्य और धर्म इन ६ नियमों के भेद से ६ सौमनस्योपविचार है। इसी प्रकार दौर्मनस्योपविचार और उपेक्षोपविचार को जानिये । इन १८ में कैसे विशेष करते हैं ? यह प्रश्न होता है क्योंकि यदि हम उनके स्वभाव का विचार करें, उनके वेदनाभाव का विचार करें, तो तीन उपविचार होंगे : सौमनस्योपविचार, दौर्मनस्योपविचार, उपेक्षोपविचार । यदि उनके संप्रयोगभाव का विचार करें तो वह एक है क्योंकि सबका मनोविज्ञान से संप्रयोग है । यदि उनके विषय का विचार करें तो वह ६ हैं क्योंकि २ व्याख्या के अनुसार यह वसुबन्धु का उत्तर है : आचार्य आह। [व्या ३०९.३१] सूत्र का उल्लेख ८.३ सी, अनुवाद पृ० १३७, टिप्पणी ४ में है। यह वाक्य मज्झिम १.२९५ में नहीं है।--आयु और उष्मन् (उपमक) पर, कोश २,अनुवाद पृ० २१५ । ५. पुनश्चाष्टादशाविधा सा मनोपविचारतः॥ पालि ग्रन्थों में ६ सोमनस्सूपविचार, दोमनस्सूपविचार, उपेक्खूपविचार हैं (दीघ,३.२४४; मज्झिम, ३.२१६, २३९, विभंग, ३८१, आदि--अट्ठाइस मनोपविचारा चक्खुना रूपं दिस्वा सोमनस्स द्वानिय रूपम् उपविचति. मनसा धम्म विनाय सोमनस्स- हानियं धम्नमुपविचरति । किन्तु उनमें और महाव्युत्पत्ति में मन-उपविचार शब्द नहीं है। संस्कृत पाठ : चक्षुषा रूपाणि दृष्ट्वा सौमनस्यस्थानीयानि रूपाण्युपविचरति . धर्मान् विज्ञाय सौमनस्यस्थानीयान् धर्मानुपविचरति। व्या ३१०.११] भाष्य में व्याकरणसम्बन्धी एक व्याख्यान है जो किसी अनुवाद में नहीं पाया जाता किन्तु जिसका एक अंश व्याख्या में हैं : पुनः सन्धिकरणं चात्र द्रष्टव्यम् । इस पर व्याख्या कहती है : पूर्वत्रासिद्धम् (पाणिनि ८.२.१) इति सकारलोपस्यासिद्धत्वाद् गुणो न प्राप्नोति ।) परिहारस्तु । ईषदर्थेऽयम् नम् (६.३.१०५) च दृष्टव्यः । ईषत् सिद्धम् असिद्धमिति । अतः सिद्धत्वात् सकारलोपस्य गुणो भवति । सैष दाशरथी राम इति यथा। [मास उप- विचार : - मन-उपविचार - मनोपविचार] [च्या ३१०.७] । lui