पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३५१

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश ३४१ रूप, शब्दादि विषय-षट्क उनके आलम्बन हैं । हमारा उत्तर है कि हमको तीन प्रकारसे व्यवस्थापना करनी चाहिये। प्रथम १५ उपविचारों का आलम्बन असंभित है : रूप-सम्बन्धी मनोपविचार का आलम्बन केवल रूप है. ....। किन्तु तीन धर्मोपविचार–धर्मसम्बन्धी तीन उपविचार (सौमनस्यादि)- उभय प्रकार के हैं। यह रूपादि विषयपंचक व्यतिरिक्त धर्मों को आलम्बन बनाते हैं। इस अवस्था में इनका आलम्बन असंभिन्न है, अमिश्र है। यह (रूप, शब्द,..... धर्म) इन ६ धर्मों में से एक, दो, तीन,. ६ को आलम्बन बनाते हैं । इस अवस्था में इनका आलम्बन संभिन्न है।' [१०९] 'मनोपविचार' शब्द का क्या अर्थ है ? चैतसी वेदना के विविध प्रकार (सौमन- स्यादि) 'मनोपविचार' क्यों हैं ? वैभापिकों का यह कहना अयथार्थ है कि "क्योंकि सौमनस्य, दौर्मनस्य, उपेक्षा मन का आश्रय लेकर रूपादि को आलम्बन बनाते हैं (उपविचरन्ति = आलम्बन्ते)।" [व्या ३१०.३०] । एक दूसरे मत के अनुसार : "क्योंकि सौमनस्य, दीर्मनस्य, उपेक्षावश मन रूपादि का पुनः विचार करता है (उपविचारयन्ति)। क्योंकि वेदनावश (सौमनस्यादि वेदना) मन का रूपादि विषयों में 'पुनः पुनः विचारण होता है। आक्षेप या दोष-१. कायिकी वेदना को मनोपविचार क्यों नहीं निर्दिष्ट करते ? निस्संदेह कायिकी वेदना का आश्रय मनस् है किन्तु (चक्षुरादि) रूमीन्द्रिय भी इसका आश्रय है। यह विकल्प-विनिर्मुक्त है (जैसे चक्षुर्विज्ञानादि जिससे यह संप्रयुक्त है, १.३३, अनुवाद ६०) यह उपविचारिका [अर्थात् संतोरिका] भी नहीं है।' जो मनोविज्ञानमात्रसंप्रयुक्त एक चैतसी वेदनात्मक द्रव्य है वह सौमनस्यादिस्वभावनयभेद से त्रिविध है और इनमें से प्रत्येक रूपादि विषय-पट्क के भेद से ६ प्रकार का है। अतः कुल १४३४६१८ हैं। भाष्य में केवल इतना है : यो धर्मोपविचारा उभयथा [व्या ३१०.२५] । हम व्याख्या का अनुवाद देते हैं। इसका प्रभव विभाषा, १३९, ८ है। जब धर्ममनोपविचार के मालम्बन ७ प्रकार के धर्म होते हैं--(चक्षु...... मन-आयतन) ६ आध्यात्मिक आयतन और वाह्यधर्मायतन-चाहे यह समुदायम होंयासमुदाय में न हों,तो आलम्बन असंभिन्न होता है। जब इसके आलम्बन यह ७ धर्म (समुदाय में या नहीं) तया (रूपादि) १.२......५ बाह्य विषय होते हैं तो मालम्बन भिन्न होता है।]......स्मृत्युपस्थानों के विषय में भी यही वाद है : कायस्मृत्युपस्यान का आलम्बन अभिन्न है। यह केवल काय फो आलम्बन बनाता है। धर्मस्मृत्युपस्यान का आलम्बन अभिन्न या संभिन्न (मिश्न) या समस्त होता है, ६.१५ सी, अनुवाद पृ० १६२ । मनः किल प्रतीत्य (= आश्रित्य) विषयानुपविचरन्ति (मालम्बन्ते) सौमनस्यादीनि । [व्या ३१०.२९] "किल' शब्द सूचित करता है कि वसुबन्धु इस निर्वचन को स्वीकार नहीं करते। 'उप' शब्द का अर्थ 'पुनः पुनः' है। अतः वेदनावशेन मनसो विषयेषु पुनः पुनर्विचारणात् । कदाचित् 'यो मन उपविचारयति स मनोपविचार'] [च्या ३१०. ३१-३२] विभाषा, १३९, ७ में इसका विचार हुआ है--उपविचार चैतसी वेदना के होते हैं। अतः सौमनस्य-उपविचार है। सुख-उपविचार नहीं। १ २ t २ . २