पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३४२ अभिधर्मकोश २, किन्तु तृतीय ध्यान का सुख (८.९ वी) जो मन पर ही आश्रित है मनोपविचारों में गृहीत क्यों नहीं होता ?-वैभाषिक कहते हैं (अयुक्त) : "क्योंकि आदित : अर्थात् कामधातु में मनोभूमिक सुख नहीं है कामधातु का सुख केवल कायिको वेदना है]; क्योंकि आपके सुखोप- विचार का प्रतिद्वन्द्व दुःखोपविचार नहीं है।" [११० ३. किन्तु यदि उपविचार केवल मनोभूमिक हैं तो आपको इस सूत्र का विचार करना है: "चक्षु से रूपों को देखकर वह सौमनस्यजनक (सौमनस्यस्थानीय) रूपों का उपविचार करता है (उपविचरति)"। सूत्र में चक्षुरिन्द्रिय और उपविचार का सम्बन्ध स्पष्ट है। सर्वास्तिवादिन् उत्तर देता है : १. भगवत् का यह वचन इसलिये है क्योंकि उनकी अभिसन्धि (अभिसंदधाति) इससे है कि उपविचार पाँच विज्ञानकाय से अभिनिहत होते हैं। यह उप- विचार मनोभूमिक ही हैं: यथा अशुभा (विनीलकादि की भावना, ६. ९) चक्षुर्विज्ञान से अभि-- निहत और मनोभूमिक दोनों हैं। वास्तव में इन भावनाओं में समाहित चित्त होता है। २. पुनः सूत्रवचन है: “रूप देख कर....... ."; सूत्र वचन यह नहीं है: “रूपों को देखते हुए . यदि ऐसा वचन होता तो आपका आक्षेप युक्त होता। ३. बिना देखे, इत्यादि रूपादि का उपविचार होता है। [यथा दूसरे से सुनकर सौमनस्य के साथ रूप का 'उपविचार' होता है] । यदि अन्यथा होता तो कामधातूपपन्न सत्त्व रूपावचर रूप, शब्द और स्प्रष्टव्य का जिनको वह नहीं देखता] 'उपविचार' न कर सकता; रूपधातूपपन्न सत्त्व कामावचर गन्ध और रस का उपविचार न कर सकता । ४. सूत्रवचन है:"रूपों को देख कर ........वह रूपों का उप- विचार करता है " क्योंकि 'उपविचार' व्यक्ततर होता है जब यह प्रत्यक्षीकृत विषय को आल- म्बन बनाता है। इसमें सन्देह नहीं कि रूप को देख कर कोई शब्द का [जो रूप का सहचर है] उपविचार नहीं कर सकता। वहाँ अप्रत्यक्षीकृत शब्द का 'उपविचार' होगा किन्तु सूत्र आकुलता का परिहार करने के लिये इन्द्रिय और अर्थ का यथानुकूल व्यवच्छेद करता है। आलम्वनों को सूत्र में सौमनस्यस्थानीय आदि बताया है। क्या उनका यह स्वभाव है ? नहीं। एक ही आलम्बन एक के लिये सौमनस्यस्थानीय है, दूसरे के लिये दौर्मनस्य- [१११] स्थानीय है। यह सब सन्तान को देखकर, एक ही चित्त की वासनाओं को देखकर, न कि आलम्बन को देखकर होता है (अस्ति सन्तानं नियम्य) [व्या ३११ . २७] । मनोपविचारों में कितने कामप्रतिसंयुक्त (कामावचर) हैं ? किस धातु को कामावचर मनोपवित्रार आलम्बन बनाते हैं ? अन्य दो धातुओं के लिये भी यही प्रश्न हैं। t विभाषा, १३९, २ में इस प्रश्न का विचार हुआ है। मध्यम, २२, ३--वक्षुषा रूपाणि दृष्ट्वा सौमनस्यस्थानीयानि रूपाण्युपविचरति । यया तु व्यक्ततई तथोक्तं ययानुकूलम् इन्द्रियार्थव्यवच्छेदतः। च्यिा ३११.२०-व्याख्या फा पाठ यया तु अनाकुले है] 1