पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३५६

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अभिधर्मकोश पुनः यही सौमनस्य-दौर्मनस्य-उपेक्षा गर्वाचित (मेधाश्रित, अभिष्वंगाश्रित) और नैष्क्रम्याश्रित भेद से ३६ शास्तृपद हैं। यह शास्तृपद इसलिये कहलाते हैं क्योंकि इस भेद की देशना शास्ता ने की है। [११६] वेदना नामक भवांग के, जिसका हमने वर्णन किया है, बहु भेद हैं। अन्य भवांगों का यहाँ व्याख्यान नहीं है। उक्तं च वक्ष्यते चान्यदन तु फ्लेश इष्यते। बीजवनागवन्मूलवृक्षवत्तुषवत्तथा ॥३६॥ ३६ ए. अन्य का या तो व्याख्यान हो चुका है या पश्चात् होगा।' प्रथम कोशस्थान में विज्ञान और षडायतन का निर्देश हो चुका है (१.१६, ९}; चतुर्थ कोशस्थान में संस्कार और भव का निर्देश होगा; पाँचवें में तृष्णा और उपादान का। निश्रित। प्रथम का आश्रय ले द्वितीय का त्याग करो (य इमे षट् सौमनस्योपविधारास्तान् आश्रित्य तानधिष्ठाय य इमे षट् दोर्मनस्योपविचारास्तान् प्रजहीत ....)ए। किन्तु यशोमित्र कहते हैं कि यह सूत्र यह नहीं सिद्ध करता कि सौमनस्यादि, सांपलेशिक हुए बिना ही, उपविचार होते हैं। गुरु सांक्लेशिक के प्रहाण के लिये लघु सांक्लेशिक का आश्रय लेते हैं, जैसा कि कहा है: "मान का संनिश्रय ले भान का प्रहाण करना चाहिये" की। मान कभी भी व्यावदानिक नहीं होता। यहाँ नन्द का निदर्शन है जिसने अप्सराओं को कामना से स्त्रियों के प्रति कामराग का अपमम किया] । भगवत् को यह भी देशना है कि उपेक्षोपविचार से उपेक्षोपविचार का परित्याग होता है। व्या ३१५.१०] भाष्य : पुनस्त एव धनेन्याश्रितभेदेन (व्या का पाठ 'ग') पद्मिशच्छास्तृपदानि । तभेदस्य शास्त्रा गमितत्वात् [व्या ३१५.२९]--[विभाषा, १३९, ३, शास्तृपद के ५ व्याख्यान वसुबन्धु प्रथम को स्वीकार करते हैं]-तीन अध्व का विचार करने से १०८ उपविचार होते हैं]--मझिम, ३.२१७ का 'छत्तिस सत्तपदा। व्याख्या के अनुसार : त एवाष्टादशोपविचाराः..... "यह १८ उपविचार गर्धाश्रित, नष्क्रम्याश्रित भेद से ३६ शास्तृपद होते हैं" (व्या ३१५. २९)। यदि यह अर्थ लें तो तर्क यह सिद्ध करता है कि कुछ उपविचार कुशल हैं, कुछ अकुशल। परमार्थ और शुआन चाड : पुनः वही सौमनस्यादि (तान्येव सौमनस्याचीनि). 'नक्रम्य' का अर्थ संश्लेश या संसार-दुःख से निष्क्रम-भाव है। [व्या ३१५.३०] प्रेधाश्रित, नष्क्रम्याश्रित पर कोश, २ अनुयाय १० १०६, ४. पृ० १६६, महा- व्युत्पत्ति, २४५, ११४५, संयुत्त, ४.२३२, विभंग, ३८१, मिलिन्द, गेहनिस्सित और नेदख- मनिस्सित (३६ वेदना); नेत्तिप्पकरण, ८७, कसे कुशल तृष्णा दौमनस्य से निष्क्रान्त होती है, 'नखम्मसित'-रोशडेविड्स-स्टोड, नेक्खम्म, गेह, गेध ('काम' और 'गृह' इन शब्दों से दूषित)। सोमनस्स, वोमनस्स, उपेवखा सेवितब्ब, असेवितम्ब हैं, दीघ, २.२७८ ए. मज्झिम, १.३६४, एक दूसरे सन्दर्भ में : याऽयं उपेखा नानत्ता नानत्तसिता ताम- भिनिवजेत्वा याऽयं उपेखा एकत्ता एकत्तसिता....ता एवुपेखां भावेति बी. नेत्तिप्पकरण, ८७ में यह वचन है : "जिस मान का आश्रय लेकर मान का प्रहाण होता है वह मान कुशल है।" इसी ग्रन्थ के अनुसार तृष्णा भी कुशल हो सकती है। नीचे टिप्पणी ३ देखिये। हम इस तान्त्रिफवाद से परिचित हैं कि राग से राग का बहिष्कार होता है, चित्त- विशुद्धिप्रकरण, जे.ए.एसवी, १८९८, पृ. १७५] उक्तं च वक्ष्यते चान्यत्। ३ . 11 , 1 I.