पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३५७

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश ३४७ हमने कहा है (३.२६) कि प्रतीत्यसमुत्पाद क्लेश, कर्म और वस्तु है। ३६ बी-डी. यहाँ क्लेश इष्ट । क्लेश बीजवत्, नागवत्, मूलवत्, वृक्षवत्, तुपवत् है।' वीज से अंकुर, पत्रादि उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार क्लेश से क्लेश, कर्म और 'वस्तु' उत्पन्न होते हैं। जिस तडाग में नाग होते हैं वह शुष्क नहीं होता । इसी प्रकार भवसागर, जहाँ यह क्लेशभूत नाग होता है, नहीं शुष्क होता। [११७] जिस वृक्ष का मूल नहीं काटा जाता उसमें अंकुर निकलते रहते हैं यद्यपि उसके पत्तों को पुनः पुनः तोड़ते रहते हैं। इसी प्रकार जब तक इस क्लेशभूत मूल का उपच्छेद नहीं होता तव तक गतियों की वृद्धि होती रहती है। वृक्ष भिन्न काल में पुप्प और फल देता है। इसी प्रकार एक ही काल में यह क्लेशभूत वृक्ष क्लेश, कर्म और वस्तु नहीं प्रदान करता। यदि बीज का तुप निकाल लिया गया हो तो समग्र बीज भी नहीं उगता। इसी प्रकार पुनर्भव की उत्पत्ति के लिये कर्म का तुपभूत क्लेश से संप्रयोग होना आवश्यक है। तुषितंडुलवरकर्म तयवौषधिपुष्पवत् । सिद्धानपानवद्वस्तु तस्मिन् भवचतुष्टये ॥३७॥ उपपत्तिभवः क्लिष्टः सर्वक्लेशः स्वभूमिकः । निधान्ये त्रय आरूप्येष्वाहारस्थितिक जगत् ॥३८॥ ३७ ए-बी. कर्म तुषितंडुलवत्, ओपधिवत्, पुष्पवन है। कर्म तुपसमन्वागततंडुल के समान है। यह ओषधि के तुल्य है जो फल -विपाक होने पर नष्ट होता है । इसी प्रकार जब कर्म एक बार विपच्यमान होता है तब इसमें और विपाक नहीं होता। यह पुष्पवत् है । पुष्प फलोत्पत्ति का आसन्न कारण है। इसी प्रकार यह विपाकोत्पत्ति का आसन्न कारण है। ३७ सी. वस्तु सिद्ध अन्न और पान के तुल्य है। सिद्ध अन्न और पान सिद्ध अन्न और पान के रूप में पुनरुत्पन्न नहीं होते। उनका एकमात्र उपयोग अशन-पान में है। इसी प्रकार 'वस्तु' है जो विपाक है । विपाक से विपाकान्तर नहीं होता क्योंकि इस विकल्प में मोक्ष असम्भव हो जायगा। स्कन्व-सन्तान अपनी संस्कृतावस्था में केवल बार भवों का जिनका हम निर्देश कर चुके हैं २ अब तु क्लेश इष्यते । वीजदन् नागवन् मूलवृक्षवत् तुषवत् तया॥ यही वीज-तुष को उपमा योगसूत्र के ध्यासभाष्य, २. १३ में है। 'तुषितण्डुलवत् कर्म तथंवोषघिपुष्पवत् । सिखानपानववस्तु नवे कोशस्थान में इस प्रतिज्ञा को सिद्ध किया है, अनुवाद पृ० २९७ ॥ ६