पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३६

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१ प्रथम कोशस्थान : धातुनिर्देश पृथिवीधातु का स्वभाव खर है; अन्धातु का स्वभाव स्नेह है। तेजोधातु का स्वभाव उष्णता है; वायुधातु का स्वभाव ईरण है। [२३] ईरण से अभिप्राय उससे है जिसका स्वभाव भूतस्रोत का देशान्तरोत्पादन है,' यथा लोक में प्रदीप का ईरण कहते हैं (४.२ सी-डी) । प्रकरणों में और सूत्र में उक्त है- “वायु धातु क्या है ?-लघुत्व।" प्रकरणमें यह भी है कि "लघु उपादायरूप है।" अतएव जो धर्म ईरणात्मक है वह वायुधातु है । उसका स्वभाव (लघुत्य) उसके ईरणा-कर्म से अभिव्यक्त होता है। पृथिवी वर्णसंस्थानमुच्यते लोकसंज्ञया। आपस्तेजश्च वायुस्तु धातुरेव तथापि च ॥१३॥ पृथिवीचातु और पृथिवी में क्या विशेष है; अन्धातु और जल में क्या विशेष है, इत्यादि? १३. लोक व्यवहार में जिसे 'पृथिवी' शब्द से अजप्त करते हैं वह वर्ग और संस्थान है। इसी प्रकार जल और तेज हैं। वायु वायुवातु है अथवा वर्ण और संस्थान है। [२४] वास्तव में लोक में 'कृष्ण वायु' 'परिमंडल वायु' कहते हैं किन्तु जिसकी लोक में वायु संज्ञा है वह वायुधातु भी है। 3 ३ प्रकरण; १३ ए--महाव्युत्पत्ति (१०१) में खदखटत्व, द्रवत्व, उष्णत्व, लघुसमुदीर- णत्व है। १ देशान्तरोत्पादनस्वभावा...ईरणा । [व्याख्या ३३.२१ ने स्वभावा के अनन्तर 'भूतनोतसः' पद है। ] काम्पेण्डियम में उद्धृत वाक्य से तुलना कीजिए: देसन्तरुप्पत्तिहेतुभावेन । २ संस्कृत और तिब्बती भाषान्तर में बहुवचन है।-युआन-बाङः प्रकरणपाद; परमार्थः फेन-पी-ताओ-लि-त्युएन--प्रकरण, १३ एः वायुधातुः कतमः ? लघुसमुदीरणत्वम् । यह सूत्र (संयुक्तागम, ११, १, विभाषा, ७५, ८) कदाचित् गर्भावकान्तिसूत्र (मज्झिम, ३.२३९, नीचे पृष्ठ ४९, टिप्पणी २) है । शिक्षासमुच्चय (पृ० २४४) जिस पाठ से परिचित है उसमें (१) पृथिवी के लिए सक्खदत्य खरगत है। (महावस्तु १.३३९, दिव्यावदान, ५१८,२ से तुलना कीजिए। धम्मसंगणि, ६४८; हर्ष चरित; जे० आर० ए० एस० १८९९, पृ० ४९४); (२) अप् ले लिए आपस् अन्गत अप्त्व स्नेह स्नेहगत स्नेहत्व द्रदत्व है। (३) तेज के लिए तेजस् तेजोगत उमगत है; (४) वायु के लिए वायु वायुगत लघुत्व समुदोरगत्व है। ४ अर्थात् लघु भौतिक रूप है। लघुत्व जो ईरणात्मक है वायुधातु है; वायुधातु इसलिए लघु- समुदोरणत्व है जो लघुत्व और ईरगत्व उत्पन्न करता है। पृथिवी वर्णसंस्थानमुच्यते लोकसंज्ञया। आपस्तेजश्च वायुस्तु (वायुश्च) धातुरेच तयापि च । [व्याल्या ६९२.९] ८.३५ को व्याख्या में यह पान उद्धृत है किन्तु तिब्बती भावान्तर और व्याख्या पृ० ३३ व्याख्या ३३.३०] के अनुसार 'वात्या तु. पाठ होना चाहिए-वात्या=चातानाम् समूहः [व्याख्या ३३.३०], पाणिनि ४,२, ४२ के अनुसार। ८.३६ वी (वायुकृत्स्नायतन) देखिए। क्या वाय रूप है? इस पर विभाषा, ८५, १३; १३३, ५ में दो मत हैं। .