पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३६१

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तृतीय कोशस्थान लोकनिर्देश ३५१ स्पर्श त्रिकसंनिपात है (३.पू ०.९६); मनःसंचेतना मानसकर्म (४.१ सी) है; विज्ञान विज्ञानस्कन्व है। [१२२] जब यह अनास्रव होते हैं तब यह आहार क्यों नहीं होते ? वभाषिक कहते हैं : "माहार वह है जिससे भव की वृद्धि होती है। किन्तु अनास्लव धर्म एंसे नहीं हैं क्योंकि भव का विनाश करना उनका कार्य है।" यह वाद उस सूत्र के अनुरूप है जिसका वचन है कि आहार भूतों की स्थिति और यापन के लिये और संभवैपियों के अनुग्रह के लिये होता है। किन्तु अनात्रव स्पर्श, संचेतना और विज्ञान इन दो कार्यों के लिये नहीं होते। 'भूत' का अर्थ है 'उपपन्न सत्त्व'। किन्तु संभवैषी' शब्द का क्या अर्थ है ?' इससे अन्तरामव इष्ट है जिसकी प्रनप्ति भगवत् पाँच संज्ञाओं से करते हैं: ४०सी-४१ ए. मनोमय, संभवपिन्, गन्धर्व, अन्तराभव, [अमि] निवृत्ति।' अन्तराभव को मनोमय कहते हैं क्योंकि यह केवल मन से निजात है (मनोनिजातत्वात्), क्योंकि शुक्र, शोणित, कर्दम ,पुष्पादि किंचित् वाह्य का उपादान न लेकर (अनुपादाय) इसका भाव होता है। इसे संभवैषिन् कहते हैं क्योंकि इसका स्वभाव उपपत्तिभव को जाना है। इसे गन्धर्व कहते हैं क्योंकि यह गन्ध-भक्षण करता है। [१२३] इसे अभिनिवृत्ति कहते हैं क्योंकि इसकी निवृत्ति अर्थात् इसका जन्म उपपत्ति के अभिमुख है। अभिनिवृत्ति अन्तराभव है यह इस सूत्र से सिद्ध होता है : “सयावाघ काय को १ कवडोकार आहार गम्वरसत्प्रष्टव्यायतनात्मक है। अतः यह स्पष्ट ही सानव है। किन्तु स्पर्श, मनः संचेतना और विज्ञान कभी सासव और कभी अनायब हैं । जव यह सारव होते हैं तभी आहार होते हैं। 'लोस्सव में विज्ञान शब्द का व्याल्यान नहीं है । परमार्थ इसे मनोविज्ञान कहते हैं; शुआनचाल, विज्ञानस्कन्च । व्याख्याः चत्वार आहारा भूतानां सत्त्वानां स्थितये संभवैषिणां चानुग्रहाय । फतमे चत्वारः। कवडोकाराहार मौदारिकः सूक्ष्मश्चाहारः प्रथमः। स्पर्शो द्वितीयः । मनःसंचेतना तृतीयः । विज्ञानमाहारश्चतुर्थः (८.३ सी. पृ० १३९-१४०). एकोतर ३१,६: भूतानां स्थितये यापनाये संनवैषिणां चानुग्रहाय ; विभाषा, १३०,६; संयुत्त,२.११,मग्निम, १.२६१: चत्तारोऽमे मिक्खवे आहारा भूतानां ठितिया संभ- वेसोनं वा अनुग्गाहाय.... कलिकारो आहारो ओलारिको वा सुखुमो वा. कायस्त ठितिया यापनाय , विसुद्धिमग्ग ,३२ और रोज डेविड्ल-स्वीड (यापना) में निर्दिष्ट स्थितय = अवस्थापनाय, अनुप्रर्भय = पुनभवाय संभवाय (व्याख्या) अन्य अन्य। भूता उत्पन्नाः । संमबपिणोऽन्तराभविका:-पृ० १२४, पंक्ति ४ देखिये। 'मनोमयः (संभवपी) गवंवश्चान्तराभवः। निवृत्तिः] मनोमय, कोश,२.४४ डी,८.३सी देखिये। ऊपर पृ०४७. शुआन-चाइः मनिनिवृत्ति (उत्पाद), क्योंकि अनागत भव के अभिमुख हो इसका किंचित् काल के लिये उत्पाद होता है। २ ४ य 2