पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३६६

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1 अभिधर्मकोश [१२९] [विभाषा, १३०, १२ में तीन मत हैं] 1 १. प्रथम मत के अनुसार जम्बुषण्ड जम्बुद्वीप है। अतः इस प्रकार अर्थ करना चाहिये : "जम्बुद्वीप के सब निवासी जो कुक्षिमान् २-यह अर्थ अयुक्त है क्योंकि वचन में 'एक पृथग्जन है। यह 'सब सत्वों को प्रज्ञप्त नहीं कर सकता । यदि ऐसा अर्थ होता तो हम नहीं समझते कि क्यों सूत्र में यह उपदिष्ट होता कि असंख्य पृथग्जनों को दिये हुए दान का फल स्वल्प संख्या में, शतमात्र ऋषियों को, दिए हुए दान से अधिक है । इसमें क्या विशेष है, क्या आश्चर्य है ? २. द्वितीय भत के अनुसार यह पृथग्जन संनिकृष्ट बोधिसत्व है। ३. तीसरे मत के अनुसार द्वितीय मत अयुक्त है। वास्तव में ऐसे बोधिसत्व को दिये हुए दान का अप्रमेय पुण्य है । यह पुण्य शतकोटि अर्हत् को दिये हुए दान से भी अधिक है। उपमा बहुत हीन होगी । अतः वैभाषिक कहते हैं कि यह पृथन्जन वह पुद्गल है जिसने निर्वेधभागीय कुशल मूलों का प्रतिलाभ किया है।' [१३०] हमारे मत से 'जम्बुषण्डगत' पद का नरुक्त विधि से "निर्वेधभागीय से समन्वागत" यह अर्थ नहीं है। यह अन्वर्थ संज्ञा नहीं है और न यह पारिभाषिक शब्द है । लोक में यह शब्द इस अर्थ का वाचक नहीं है । सूत्र और शास्त्र भी इस अर्थ में इसका प्रयोग नहीं करते ।अतः प्रस्तावित अर्थ कल्पित है। --यथार्थ में 'जम्बुषण्डगत' जिसका अर्थ है "जम्बुवृक्षमूल में निषण्ण" केवल एक बोधिसत्व हो सकता है [यथा उक्त है कि "सर्वार्थसिद्ध बोधिसत्व कृषिनाम को देखने के लिए निकले और जम्बुवृक्षमूल में बैठकर उन्होंने प्रथम ध्यान को उत्पादित किया।"]। दानं दद्यात् । यश्चैकस्मै पृथग्जनाय जम्बुषण्डगताय दानं दद्यात् । अतोदानादिदं दानं महाफल- तरम् ॥ बायकेभ्यो वीतरागेभ्यः स्रोतापत्तिफलप्रतिपन्नकायदानम् अप्रमेयतरम् .. दक्खिणाविभंगसुत्त (मज्झिम, ३.२५५) : तिरच्छानगते दानं दत्वा सतगुणा दविखणा पटिकखितब्बा। पुथुज्जने दुस्सीले....सहस्सगुणा....। पुथुज्जने सोलवन्ते..... सत- सहस्समुणा....। बाहिरके कामेसु वीतरागे....कोटिसहस्सगुणा. सच्छिकिरियाय पटिपन्ने दानं दत्वा असंखयाअप्पमेय्या दक्षिणा पटिकखितब्बा। क्षेत्र के अनुसार दान का महत्व, इस पर कोश, ४.११७ देखिये। भगवत ने कहा है : याः काश्चिज्जम्बुषण्डात् नवन्त्यः सर्वास्ताः समुद्रनिम्नाः समुद्रप्रवणाः समुद्रप्राम्भारा। (अंगुत्तर, ५.२२, संयुत्त, ५.३९ से तुलना कीजिये) १ जम्बुषण्डगत = जम्बुद्वीपनिवासिन् हमको स्मरण है कि जम्बुद्वीपपुरुष बुद्ध हैं (कोश, ७.३० ए-सी)। कुक्षिमन्तः - जिनके कुक्षि हैं = जो भोजन-शक्ति से उपेत हैं। कललादि अवस्था के आरम्भ से । कि चात्र विशेष:--व्याख्या किमत्राश्चर्यम् . संनिकृष्ट बोधिसत्व आसन्नाभिसंबोधि पृथग्जनत्व के प्रहाण के पूर्व जो चित्तावस्था होती हैं = मार्ग प्रवेश = स्रोक्तप्रातापत्ति फलप्रतिपन्नक ६.१७ न स्त्रियम् अन्वर्या संज्ञा नापि परिभाषिता। ' कृषिनामकं व्यवलोकनाय निर्गतः सर्वार्थसिद्धो बोधिसत्वो जम्बुवृक्षमूले निषण्णः प्रथम ध्यानमुत्पादितवान् !--८.२७ सी, की व्याख्या में एक दूसरा संस्करण है : बोधिसत्वो हि कर्मान्तप्रत्यवेक्षणाय [कर्मान्त - कृषिकर्म] निष्कान्तो जम्बुमूले प्रथमं ध्यानमुत्पादिवान- -दिव्य, ३९१ : अस्मिन् प्रदेश जम्बूच्छायायां निषद्य....मझिम, १.२४६ :.....पितु सक्कस्स कम्मन्तै सीताय जम्बच्छायाय निसिन्नो विविच्चेव कामेहि. पठमं भानं उप- ....। सोतापत्तिफल- १ 1

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