पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीय कोशस्थान लोकनिर्देश यह वोधिसत्व पृथग्जन है, यह काम से वीतराग है। अतः इनकी तुलना कामवीतराग वालक ऋपियों से हो सकती है और हम यह कह सकते हैं कि उनको दिया हुआ दान ऋषियों को दिये दान से अधिक पुण्य का देने वाला है। निस्संदेह इस वोधिसत्व को दिया दान अनन्त ऋपियों को दिये दान से विशिष्ट है । यदि सूत्रवचन है कि इसका फल सौ ऋषियों को दिये दान से अविक है तो इसका कारण यह है कि शत शब्द का ग्रहण पूर्वाधिकार से है : “जो १०० तिर्यग्योनिगत को दान देता है, जो एक दुःशील मनुष्य को दान देता है, जो १०० दुःशील मनुष्यों को दान देता है..."। हम देखते हैं कि इन उपमाओं का अनुसरण कर सूत्र जम्बुपण्डगत का और उल्लेख नहीं करता। सूत्रवचन यह नहीं है कि “स्रोतमापत्तिफलप्रतिपन्नक को दिया हुआ दान जम्बुपण्डगतों को दिये दान से अप्रमेयतर है-सूत्र का वचन ऐसा ही होता यदि जम्वुपण्डगत निवभागी होता- किन्तु ऋपि की उपमा देते हुए यह कहता है कि "स्रोतआपत्तिफलप्रतिपन्नक को दिया दान १०० वाह्यक ऋपियों को दिये दान से अप्रमेयतर है ......" [१३१] हमने प्रतीत्यसमुत्पाद और सत्वों की स्थिति कैसे होती है इसका निर्देश किया है । हमने इसका भी निर्देश किया है कि आयुः क्षयादि से (२.४५ ए, अनुवाद २१७) मरण कैसे होता है । अब हमको यह निर्देश करना है कि मरण और उपपत्ति काल में कौन विज्ञान होता है। छेदसधानवैराग्यहानिच्युत्युपपत्तयः। मनोविज्ञान एवेष्टा उपेक्षायां च्युतोद्भवी ॥४२॥ ४२ ए-सी. छेद, प्रतिसंघान, बैराग्य, वैराग्यहानि, च्युति और उपपत्ति मनोविज्ञान में ही इष्ट हैं। कुशलमूलसमुच्छेद, कुशलमूलप्रतिसंधान, घातुवैराग्य, भूमि (प्रथमध्यानादि) वैराग्य, और इस वैराग्य से परिहागि, च्युति और उपपत्ति मनोविज्ञान से ही होते हैं। अन्तराभव-प्रतिसन्धि भी उक्त रूप (उपपत्ति-रूप) की होती है । उसका उल्लेख निष्प्रयोजनीय है। सम्पज्ज ... ललित, लेफमान, १२८ (अध्याय ११) : अवलोक्य च कृपि- कर्मान्तम् . ....., महावस्तु, २.४५, २६ । शतग्रहणं तु पूर्वाधिकारात्। [व्या ३२० ३१] ' छेदसन्यानवैराग्य हानिच्युत्युपपत्तयः। [ध्या ३२१, १३] मनोविज्ञान एवेष्टाः विभाषा ६१८,९८, १३, १९२, ८ कुशलमूलसमुच्छेद मिच्या दृष्टि से होता है। मिय्यादृष्टि संतीरिका होने से मानसी है। फुशलमूलप्रतिसन्यान सम्यग्दृष्टि या विचिकित्ता से होता है और यह मानती हैं (४.७९-८०) मनोविज्ञान में ही वैराग्य होता है, क्योंकि वैराग्य समाहित चित्त में ही लक्ष्य है। वैराग्य- परिहाणि अयोनिशोमनसिकार से प्रवर्तित है। यह मनसिकार विकल्प है। इसलिए यह मनोविज्ञान है। [च्या ३२१, १४] प्रवाहच्छेद के अनुकूल विज्ञान में च्युति होती है । अतः उस पुद्गल में जिसमें संक्षिप्त पंचेन्द्रिय का प्रचार होता है। (च्युतिः संक्षिप्तपंचेन्द्रियप्रचारस्य प्रवाहच्छेदानुफले विज्ञाने भयति) [संक्षिप्त पर ७. अनुवाद पृष्ठ २०]। उपपत्ति उसको होती है जो विपर्यस्तमति है (३.१५) और यह मनोविज्ञान है। [च्या ३२१, १८] बन्तराभव प्रतिसन्धिरपि उक्तस्पः-अर्थात् प्रतितन्यिज्ञामान्याद् अनुक्तोऽप्युक्तकल्प इति नोच्यते । [च्या ३२१, २०] २