पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३६८

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अभिधर्मकोश ४२ डी. च्युत और उद्भव, उपेक्षा वेदना के साथ। च्युत शब्द और च्युति का एक अर्थ है । उद्भव और उपपत्ति की एकार्थता है। च्युति और उपपत्ति के समय मनोविज्ञान उपेक्षा अर्थात् अदुःखासुखावेदना से संप्रयुक्त होता [१३२] है। यह वेदना पटु नहीं है । अन्य वेदनायें पटु हैं और इसलिए उपपत्ति और नरण विज्ञान उनसे संप्रयुक्त नहीं होता क्योंकि इस विकल्प में यह स्वयं पटु होगा। नैकाग्रचित्तयोरेतौ निर्वात्यव्याकृतद्वये। क्रमाच्युतौ पादनाभिहृदयेषु मनश्च्युतिः॥४३॥ अधोनूसुरगाजानां मर्मच्छेदस्त्ववादिभिः । सभ्यडा मिथ्यात्वनियता आर्यानन्तर्यकारिणः ॥४४॥ ४३ ए. एकाग्न और अचित्तक के लिए दोनों नहीं हैं। मनोविज्ञान में (मनोविज्ञान से और मनोविज्ञान के लिये] च्युति और उपपत्ति होती हैं । किन्तु जिस पुद्गल का चित्त ( = मनोविज्ञान) समाहित होता है उसके लिये च्युति नहीं है।' समाहित चित्त प्रथमध्यानादिभूमिक है । यह भूमि कामधातु के विसभाग है जहाँ च्युति और उपपत्ति होती हैं। दूसरी ओर यदि हम उस सत्व का विचार करें जो समापत्ति-भूमि में मृत या उपपन्न होता है तो उसका चित्त अवश्य समाहित नहीं होता क्योंकि समाहित-चित्त यत्न से निर्वृत्त होता है। यह आभिसंस्कारिक है। इसलिये यह सदा पटु है । समाहित चित्त अनुग्नाहक भी है अर्थात् इसका स्वभाव स्थिति के अनुकूल है । अतः यह प्रवाहच्छेद के अनुकूल नहीं है। अचित्तक की भी च्युति और उपपत्ति युक्त नहीं है। [विरोधसमापत्ति या असंज्ञिसमापत्ति में समापन्न पुद्गल, असंशिसमापत्ति के विपाक में अवस्थित देव, २.४१ डी] । अचित्तक का धात शक्य नहीं है। जब उसका आश्रय (= सेन्द्रियकाय, ३.४१) विपरिणत (विपरिणन्तुम्). होने लगता है-शस्त्र या अग्नि से या समापत्तियों के विपाकावेध की परिसमाप्ति से---तव अवश्य ही आश्रयप्रतिबद्ध [और बीजभाव से अवस्थित] चित्त सम्मुख होकर पश्चात् च्युत होता है।' 1 २ . यदा ५ उपेक्षायां च्युतोदभवौ। नैकाग्नचित्तौरेती--कथावस्थु, १५.९; कोश, ८.१६. भाष्य में केवल इतना है : [न समाहितचित्तस्य च्युतिरुपपत्तिा] विसभागभूमिकरवाद आभिसंस्कारिकत्वादनुग्राहकत्वाच्च। [च्या ३२१, २६] भगवत् ज्युति के लिए चतुर्थ ध्यान से व्युत्थान करते हैं, दीघ, २.१५६--नीचे पृ. १३४, नोट--२ देखिये। नाप्पवित्तकस्य । सोऽचित्तक उपक्रन्तु (मारयितुं न शक्यते (शस्त्रादिभिः)। चास्याश्रयो विपरिणन्तुम् आरभते (शस्त्रेणाग्निना वोपक्रमानिरोधसमापत्तिम् असंज्ञिसमापत्ति वा समापनस्प असंज्ञिप्तसमापसेविपाकेऽवास्थितस्य विपाकावैध-परिसमाप्तः) अवश्यम् अस्प तदानों तदाश्रयप्रतिबद्धम् (= आश्रये बीजभावेनावस्थितम् ) चित्तं सम्मुखीभूय प्रच्यवते । व्या ३२१ ३३] इसका अर्थ यह है : "चित्त का संमुखीभाव होने पर चित्त को परिहाणि (= मरण) होती है"; अथवा "इस (पुद्गल) के चित्त के सम्मुख होने पर(= समुदाचार होने पर - समु. दाच] इस पुद्गल को च्युति होती है"; अथवा संमुखीभूय = संमुखीभाव्य "णि' का लोप