पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३६९

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश [१३३] अचित्तक की अवस्था उपपत्ति के भी युक्त नहीं है क्योंकि चित्तच्छेद के हेतु का वहाँ अभाव होता है, क्योंकि क्लेश के बिना उपपत्ति नहीं होती। मरण-भव कुशल, अकुशल , अव्याकृत होता है। अर्हत् का ४३ बी. निर्वाण' दो अव्याकृत चित्त में होता है। अर्थात् ऐपिथिक चित्त में या विपाकज चित्त में । कम से कम उन आचार्यों के अनुसार जो मानते हैं कि कामधातु में एक विपाकज चित्त उपेक्षा चित्त होता है (४,४८)। किन्तु विरुद्ध मत के आचार्यों के अनुसार(४.४७) ऐपिथिक चित्त में निर्वाण का लाभ नहीं होता। [१३४] अर्हत् का अन्तिम चित्त अवश्य अव्याकृत क्यों है ? क्योंकि इस प्रकार का चित्त परम अपटु' होने से चित्तच्छेद के अनुकूल है अर्थात् चित्त के आत्यन्तिक छेद के अनुकूल है। मरण-काल में काय के किस भाग में विज्ञान निरुद्ध होता है ? --~-जव सकृत् मरण या व्युति 3 २ करके, यथा कहते हैं: "एक बात है जो पत्तों को उगाती है, एक बात है जो पत्तों को सुखाती है"। अस्ति पर्णरहो वातोऽस्तिपर्णशुषोऽपरः; उणादि, २, २२ की दूसरी टीका,इस अर्थ के साय: ......"चित्त का संमुखीभाव कर के पुद्गल च्युत होता है।" समापत्ति से अवच्छिन्न हो चित्त कैसे पुनरुपपन्न होता है, इस पर २. अनुवाद . पृष्ठ. २१२ उयपतौ स्वयुक्तम् अचित्तकत्वम् । चित्तच्छेदहत्वभावात् विना च क्लेशेनानुपपत्तेः।-यह व्याख्या का पाठ है। लोचाव और परमार्थ इसका समर्थन करते हैं। शुआन्- चाड 'हत्वभावात्' पढ़ते हैं = "क्योंकि उपपत्ति के हेतु का अभाव है। उनका पाठ 'चित्तच्छेदस्वभावात् नहीं है (इससे कठिनाई होती है)। ३.३८ में हमने देखा है कि तद्भुमिक सर्वक्लेश से उपपत्ति होती है (सर्वक्लेशहि तद्भूमिक- रुपपत्तिः प्रतिसन्धिबन्यो भवति) निर्वात्यव्याकृतद्वये । च्या ३२२ २८] भरण-चित्त कुशल, अकुशल या अव्याकृत होता है। चार प्रकार के अन्याकृत चित्त हैं : विपाकज ऐयोपथिक, शैल्पस्यानिक, नैर्माणिक (२.७१ बी, अनुवाद पृष्ठ:३२०)- अर्हत् का मरण-चित्त किस प्रकार का होता है (वह चित्त जिससे वह निर्वाण में प्रवेश करते हैं, निर्वाति] इसका अवधारण होना.चाहिए। विसुद्धि, २१२ के अनुसार अर्हत् निषद्या, शयन, चंक्रमण ऐर्यापथ में मृत होता है अतः ऐयापथिक चित्त के साथ ] । दुर्बलत्वात - परमापटुत्वात् भरण्य तद् हि चितच्छेदानुकूलम्--दो चित्तच्छेद हैं अप्रतिसन्यिक चित्तच्छेद---यह आत्यन्तिक छेद है, यया जब मरण चित्त के अनन्तर अन्तराभव-चित्त नहीं होता; सप्रतिसन्धिक छेद, यया जब मरण-चित्त का अन्तराभाव-चित्त से प्रतिसन्धान होता है। [चित्त-सन्तत्ति जो जीवित की स्थिति के लिए है उसका छेद, पालि के अनुसार 'भवंग' का उपच्छेद ३ इस अन्तिम अवस्था में चित्त कुशल और अकुशल भी हो सकता है। नियमाग अर्हत और सामान्यतः किसी म्रियमाण पुद्गल के चित्त के स्वभाव पर, कथावत्यु, २२.३ [च्युति 'पकतिचिस' में होती है। यह कानधातु के सत्व के लिये कामावर चित्त है। दो प्रकार के अर्हत पर, फायडियम भूमिका पृष्ठ.७५. को च्युति