पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३७

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अभिधर्सकोश रूप से लेकर अविज्ञप्ति तक यह सब धर्म 'रूप' क्यों कहलाते हैं ? यह सब मिलकर रूप- स्कन्ध क्यों हैं? १. भगवत् ने कहा है 'हे भिक्षुओ! क्योंकि यह निरन्तर 'भिन्न' (रूप्यते) होता है इसलिए इसे रूप उपादानस्कन्ध कहते हैं। किससे यह भिन्न होता है ? हस्त के स्पर्श से यह भिन्न होता है '११ रूप्यते' का अर्थ 'बाध्यते' हैं यह क्षुद्रकागम में पठित अर्थ-वर्गीय सूत्रों की एक गाथा से सिद्ध होता है (अट्ठकवरग, १. २) : २ "जो पुद्गल छन्द उत्पन्न होने से काम-भोग की इच्छा करता है, यदि उसको कामनाएँ समृद्ध नहीं होती तो वह शल्य से विद्ध सत्व के सदृश बाधित होता है" (रूप्यते) । (महाभारत १३ १ १९३, ४८ से तुलना कीजिए) किन्तु रूप कैसे बाधित होता है ? - विपरिणाम के उत्पादन से, विक्रिया से। २. अन्य आचार्यों के अनुसार रूपभाव अर्थात् रूपण भेद, विपरिणाम (वाधनरूपण, विपरिणाम के अर्थ में रूपण) नहीं है, [२५] किन्तु सप्रतिधत्व या प्रतिघात' है। यह स्वदेश में पररूप की उत्पत्ति में प्रतिबन्ध है (१, ४३ सी-डी देखिए)२ ३.दोप १ रूप्यते रूप्यत इति भिक्षयः...... (ऐसा प्रतीत होता है कि तिब्बती और चीनी अन्य यह अनुवाद चाहते हैं:--"कौन बाधित होता है ? हस्त-स्पर्श से....... .") संयुत्ता ३.८६: रुप्पतीति खो भिक्सवे तस्मा रूपंति कुच्चति । केन रुपति । सीतेन • सिरिसपसंफरसेन रुप्पति (इवे जन आङ्ग का अर्थ काम्पेण्डियम में देखिए: "रूप उसे कहते हैं जो शौत आदि ...की भौतिक अवस्था में अपनी आकृति बदलते हैं।") महाव्युत्पत्तिः रूपणाद् रूपम् (१११, ३,२४५, ११३७, ११५३, ११५४) १ दो धातु हैं : (१) 'रूप' जिससे 'रूप' सिद्ध होता है, जिसके अर्थ आकृति, वर्ण, सौन्दर्य, रूप, स्वर्ण आदि हैं। (२) 'रुप्' भिन्न होनाः वैदिक संस्कृत में रुप्यति, रोपण आदि; पालि में एप्पति (=कुप्पति घट्टियति पोडियति दोमनस्सितो होति), पाणिनीय संस्कृत में लु। लुम्पति है। • सर्वास्तिवादियों के अनुसार अर्थवर्गीय 'उपयोगी अध्याय' हैं। पालि के अनुसार यह 'अष्टक वर्ग' है । (एस० लेबी, जे० एस १९१५, १.४१२; १९१६. २.३४) तस्प चेत् कामयानस्य छन्दजातस्य देहिनः । ते फामा न समृध्यन्ति शल्यविद्ध इव रूप्यते ॥ [व्याख्या ३४.२] महानिद्देस, पृ०५-फर्न, वेस्पाइडे गेश्रीफ्तेन, २. २६१ (हेग १९१३) जातक ३, ३६८० चरियापिटक, ३, ६ आदि से 'हप्' का अर्थ उदाहुत करते हैं। १ रुपणं प्रतिघात इत्यपरे [व्याख्या ३४.२०] -प्रतिघात का अर्थ है-स्वदेशे परस्यो- त्पत्तिप्रतिवन्धः--नीचे पृष्ठ ५१ देखिए। अन्यत्र 'सप्रतिय वस्तु का लक्षण यह हैः यद्देश आवृणोति, जो देश का 'आवरण' करता है। जो 'प्रस्त' है। १.४३ में हम देखेंगे कि धम्मसंगणि, ६१८-६१९ को किस प्रकार का प्रतिघात इष्ट है। पण का एक तीसरा निर्वचन है, मध्यमकवृत्ति, ४५६, ९: तत्रेदम् इहामुत्रेति निरूपणाद "यह रूप कहलाता है पयोंकि हम निर्देश कर सकते हैं कि यह यहां है, वहां है।" १.२४ को २