पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३७१

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश काय के वह भाग मर्म कहलाते हैं जिनके उपघात से मृत्यु अवश्य होती है। [१३६] जव अव् धातु, तेजोधातु या वायुधातु अत्यन्त विक्षुब्ध होता है तव मर्मस्थान तीन वेदना से मानों तीक्ष्ण शस्त्र से छिन्न-से होते हैं (छिद्यन्त इव)। जब हम कहते हैं कि मर्मच्छेद होता है तो कहने का यह अभिप्राय नहीं है कि वह काष्ठ की तरह छिन्न होते हैं। अथवा वह छिन्न इसलिए कहलाते हैं क्योंकि वह छिन्नवत् हैं, पुन: चेष्टा नहीं कर सकते (न पुनश्चेष्टन्ते) । पृथिवी घातु के क्षोभ से मर्मच्छेद क्यों नहीं होता?--क्योंकि दोप केवल तीन हैं अर्थात् पित्त, श्लेष्म और वात और यह यथायोग अप्-तेजो-वायुधातुप्रधान है। एक दूसरे मत के अनुसार क्योंकि भाजनलोक इन तीन धातु संवर्तनियों से विनष्ट होता है (३. १००ए) इसलिए मृत्यु भी इन तीन धातुओं से होती है। देवपुत्रों के मर्मच्छेद नहीं होता। किन्तु च्यवनधर्मी देव में पाँच पूर्वनिमित्तों का प्रादुर्भाव होता है : १. उसके वस्त्र और आभरण से अमनोज्ञ शब्द निष्क्रान्त होते हैं; २. उसके काय की प्रभा का अपचय होता है; ३. स्नान के अनन्तर जल के कण उसके शरीर में व्यासक्त होते हैं; ४. उसकी स्वाभाविक काय-लघुता के होते हुए भी उसका चित्त एक आलम्वन पर स्थिर होता है; ५. उसकी आँखों का जो निसर्ग से स्थिर हैं उन्मेष-निमेष होता है, वह क्षुब्ध होती हैं। और मृत्यु के पाँच निमित्त हैं १. वसन क्लिष्ट होते हैं; २. माल्य म्लान होते हैं . ३. कक्षों से स्वेद निकलता है. ४. काय से दुर्गन्ध निकलती है ; ५. देव की अपने आसन पर धृति नहीं होती। 1 । २ "एक्सपोजिटर" (पी. टी. एस), १३२में उद्धृत पालिविवृति : मरन्ति अनेनाति यस्मिन् तालिते न जीवति तं ठानं मम्मं नाम । इसिङ (तकाकुसु, १३१) एक सूत्र उद्धृत करते हैं जिसमें चार दोष परिगणित हैं : "chit-lu अर्थात् वह दोष जो पृथिवी धातु के आधिक्य के कारण काय को गुरु और अकर्मण्य बनाता है" तया श्लेष्मन् (कफ), पित्त और वात--तकाकुसु chu-Ita का अनुवाद 'गुल्म' देते हैं। ध्वनिसाम्य से प्रायः यह शब्द गुरु या गौरव है। (किन्तु प्रसिद्ध चतुर्थ दोप शोणित है, जाली, ग्रंडिस, ४१)--त्रिदोष पर रोजतेडविड्स स्टीड मिलिन्द, ४३, १७२ और सुमंगल विलासिनी, १.१३३ का हवाला दे हैं। तकाकु सु को टीका, चुल्लबग्ग, ५.१४, १ महावग्ग, ६.१४, १ देवों में मृत्यु के पूर्व निमित्त : विभाषा, ७०.१६, एकोत्तर, २६, १५, रत्नराशिसूत्र. वील, कैटिना, ९७ में एक प्रभव उद्धृत है जिसमें कुछ को वर्जित फर दोनों सूचियाँ मिला दी गई हैं। इसमें निमित्तों को पूर्ण संख्या ५ है,-शावाने, १.४२५ (नैन जिओ,) में सात निमित्तों की सूची है : १. घाटा (गुद्दी) को प्रभा अन्तहित होती है। २. पुष्प म्लान होते हैं। ३. वर्ण-परिवर्तन होता है। ४. बस्त्र पर रजः कण;५. कक्ष से स्वेद; ६. क्षीण काय; ७. वह अपने आसन पर तिलाभ नहीं अन्यत्र दूसरी ही सूची मिलती है : दिव्य, १९३ : च्यवनर्धामणो देवपुत्रस्य पंच पूर्वनिमित्तानि प्रादुर्भवन्ति यह शब्दशः उस वाक्य से मिलता है जिसका अनुवाद लोचाव में हमारी प्रथम सूची के उपोद्घात के रूप में दिया है] अक्लिष्टानि वासांति रिलश्यन्ति । अम्लानानि माल्यानि म्लायन्ति । दोर्गन्ध्यम् करता।"