पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३७३

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश हमने सवलोक का निर्देश किया है। अव हम भाजनलोक का निर्देश करेंगे।' तत्र भाजनलोकस्य संनिवेशमुशन्त्यधः। लक्षषोडशकोद्वेषम् असंख्यं वायुमण्डलम् ॥४५॥ ४५. हम भाजनलोक का संनिवेश इस प्रकार समझते हैं। नीचे १६ लक्ष योजन उद्वेध के असंख्य वायुमण्डल हैं। [१३६] महासाहस्त्र लोकधातु (३.७३) के संनिवेश का हम निर्देश करेंगे 1 सत्वों के कर्म के आधिपत्य से (अधिपतिफल २.५८,४.८५)) नीचे वायुमण्डल को उत्पत्ति होती है जो आकाश में प्रतिष्ठित है। इसका वेधन १६ लक्ष योजन (३.८८) है। इसका परिणाह असंख्य है; यह ' सबसे प्राचीन उल्लेख दीर्घ और मध्यमागम के सूत्रों में है, विशेष कर वीर्घ, ३० में। सबसे अर्वाचीन सूत्रों में नंजियो, ५४९ (बॉल का हिंशाई); और शास्त्रों में, नंजियों १२५७, लोक प्रज्ञाप्ति और कारण प्रज्ञाप्ति (बुधिस्ट कास्मालोजी में इनका विवरण है) और विभाषा उल्लेख करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वसुबन्धु यहाँ इस सारे साहित्य की उद्धरणी करते हैं। सद्धर्मस्मृत्युपस्थान (लेवी, फार द हिस्ट्री अब रामायन, जे ए एस. १९१८,१), दिव्य, १७, (मान्धाता की विजय, ३२- नंजियों ६४३ आदि) हीनयान में भी हैं। पालिनन्य, लोटस, ८४२, स्प. हार्डी, लोजेंडस एंड थ्यूरोज १८८६ । चीनी ग्रन्थ (दोनों यानों के), वील, १८७१ फोर लेक्चर्स, द स्केमा अव द यूनीवर्स इन जार्जी, अलफाबेटम टिबेटनम १७७२. गोगली, सोलोन बुद्धिज्म, १९०८, भाग २, स्प० हाडी, लोजेंडस १०४, हेस्टिंग्स एनसाइक्लोपीडिया अव एथिक्स एंड रेलिजन्स, कास्मागोनी एंड कास्मोलोजी (बुद्धिस्ट) ४. १२९-१३८, वी० सी० ला, हेवेन एंड हेल इन बुद्धिस्ट पर्सपेक्टिव १९२५, मैंने मैक गवर्न बुद्धिस्ट कास्मालोजी' (लंदन १९२३) नहीं देखी है । तत्र भाजनलोकस्य संनिवेशम् उशन्त्यधः । लक्षषोडशकोद्वैषम् असंख्यं वायुमण्डलम् ।। उशन्ति - इच्छन्ति। किनको दृष्ट है? "वैभाषिकों को" (फु-कुआङ:) अथवा "सब निकायों को" फा-पाओ एकमत (प्रधानतः महायान) के अनुसार वायुमण्डल ऊपर ही स्वर्णभूमि है; अमण्डल शुआन-बाङ संनिवेश को स्थितिक्रम के अर्थ में लेते हैं : "भाजनलोक का ऐसा संनिवेश है: नीचे.. ."। यह अर्थ युक्त है क्योंकि वायुमण्डल भाजनलोक में संग्रहीत है। परमार्थ का अर्थ कदाचित् "आधार है। लोचव का अर्थ 'स्थान" है। १.५ की व्याख्या में उद्धृत सूत्र का अनुवाद वरनफ ने इंट्रोडक्शन ४४८ में दिया है। पृथिवी भौं गौतम कुत्र प्रतिष्ठिता। पृथिवी ब्राह्मण मदमण्डले प्रतिष्ठिता । अमण्डलं भो गौतम कुत्र प्रतिष्ठितम् । वायो प्रतिष्ठितम् । वायुभॊ गौतम कुत्र प्रतिष्ठितः। साकाशे प्रतिष्ठितः। आकाशं भी गौतम कुत्र प्रतिष्ठितम्। अतिसरसि महाब्राह्मण अतिसरसि महाबाह्मण । आकाशं ब्राह्मण अप्रतिष्ठितम् अनालम्बनम् इति विस्तरः । दोध, २.१०७ से तुलना कीजिये (पृथिवी कंपन पर); विडिश, मार एंड बुद्ध ६१-अयं आनन्द महाप०बी उदके पतिठिता। उदक वाते पतिठितम् । वातो आफासलो होति ।- इस वाद को नागसेन (मिलिन्द का पाठ इस प्रकार है-बातो आकासे पतिदिठतो) मिलिन्द को बताते हैं, ६८ । वायुमण्डल के प्रभव पर, ३. ९० सो १, १०० ए-वो शुजान-चाट १६ ए के अन्त में)। ---३.९३ सी टि० में हम देखेंगे कि जन लोक विनष्ट होता है तो रूप वहीं का यहीं रहता है। यह रूप आकाशवात होगा, १.२८. 5 के ऊपर।