पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३७५

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश अतः अव्मण्डल के ऊपर जिसका उच्छ्रय अष्टलक्ष योजन रह गया है कांचनमयी भूमि होती है जिसका वेधन तीन लाख २० सहस्र योजन है। तिर्यक् त्रीणि सहस्राणि साधू शतचतुष्टयम् । लक्षद्वादशकं चैव जलकांचनमण्डलम् ॥४७॥ समन्ततस्तु त्रिगुणं तत्र मेर्युगन्धरः। ईषापरः खदिरकः सुदर्शन गिरिस्तथा ॥४८॥ अश्वकर्णो विनतको निमिधरगिरिस्ततः। द्वीपा बहिश्चक्रवाडः सप्त हैमाः स आयसः॥४९॥ चतूरलमयो मेरुजलेऽशीति सहस्रके। मग्न ऊर्ध्व जलान्मेरुर्भूयोऽशीतिसहस्रकः ॥५०॥ अर्धार्घ हानिरष्टासु समोच्छ्यघनाश्च ते । सीताः सप्तान्तराण्येपामाद्याशीतिसहलिका ॥१॥ अभ्यन्तरः समुद्रोऽसौ त्रिगुणः स तु पार्श्वतः। अर्धाधनापराः सीताः शेषं बाहो महोदधिः॥५२॥ ४७ ए-४८ ए. जल और काञ्चन मण्डल तिर्यक् १२ लाख ३ हजार ४५० योजन है; समन्ततः इसका तिगुना है । इन दो मण्डलों का समान परिमाण है । परिमण्डल कांचनमयी भूमि पर जो इस प्रकार अब्मण्डल पर प्रतिष्ठित है, ४८ वी-४६ सी. मेरु युगन्धर, ईषाधर, खदिरक, सुदर्शन गिरि, अश्वकर्ण, विनतक, निर्मिधरगिरि हैं। उसके वाद द्वीप हैं। बाहर चक्रवाड है।' तिर्यक् त्रीणि सहलाणि सार्घ शतचतुष्टयम् । लक्ष द्वादशकं चैव जलकांचन मंडलम् । सम- न्ततस्तु त्रिगुणम् समन्त परिक्षिप्त का प्रमाण तिर्यक् प्रमाण का तिगुना है : सर्वस्य परिमाण्डलस्य इयं स्थिति- यद् अस्य त्रिपक्षमानम् (त्रिगुणमेव) समन्तपरिक्षिप्तस्य प्रमाणम् । तत्र मेरुर्युगन्धरः। ईषाधरः खदिरकः सुदर्शनगिरिस्तथा ॥ अश्वको विमतको निमिधरगिरिस्ततः। द्वीपा बहिश्चक्रवाडः अत्य सालिनी (पृ० २९७ आदि) को 'पौराण गाथाओं में 'मण्डलों के तिर्यक् का प्रमाण यही है और उसका पर्वत तथा द्वीपों का विवरण लगभग वसुबन्धु के विवरण से मिलता है। किन्तु अनेक भेद हैं जो अन्य ग्रन्थों से तुलना करने पर और भी बढ़ जाते हैं। चुरनफ लोटस, हापकिन्स, माइथोलाजिकल एसपेक्टस अॅव ट्रीज एंड माउंटेन्स इन दो ग्रेट एपिक, जे ए ओ एस ३०. ३६६, बेबिलोनियन ओरिजिन कारपेंटर इन मेलाँच सी० एच टाय, ७२) नेमिजातक, ५. १४५ (जातक, ६.१२५); अत्यसालिनी, २९७; स्पेंस हार्डी, लीजेंडस ८१. रेमूसा, जर्नल द सावाँ १८३१, पृ० ६००, बोल, कटना ४५ दिव्यावदान, २१७ में पर्वतों का वही क्रम है जो कोश में है। १ २