पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३७६

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अभिधर्मकोश कांचनमयी भूमि पर ६ महापर्वत प्रतिष्ठित है। मध्य में मेरु है। मेरु के चारों ओर अन्य' ७ पर्वत चक्राकार हैं। निर्मिधर बाह्य नेमि है जो मेरु और अभ्यन्तर के ६ भिति-पर्वतों को परिक्षिप्त करता है । इस कारण इसका यह नाम है। निर्मिधर के बाहर द्वीप हैं। सब को परि- क्षिप्त कर चक्रवाड है। इसे चक्रवाड इसलिए कहते हैं क्योंकि यह चतुर्कीपक लोक धातु को परिमण्डलित करता है और उनको चक्र का आकार देता है। [१४२] ४६ डी-५० ए. सात पर्वत सुवर्णमय है, अन्तिम अयोमय है, मेरु चतूरत्न मय है। युगन्धर और ६ पर्वत जो उसको समन्ततः परिक्षिप्त करते हैं सुवर्ण के हैं। चक्रवाड अयोमय है । मेरु के चार पार्श्व हैं जो उत्तर से पश्चिम यथासंख्य सुवर्ण, रूप्य, वैडूर्य और स्फटिक के हैं।- इन' द्रव्यों में से प्रत्येक अपने अपने आकाश प्रदेश को अपना वर्ण प्रदान करता है। मेरु का जम्बूद्वीप-पार्श्व वैडूर्यमय है। अतः हमारे लिए आकाश वैडूर्यसदृश है। किन्तु मेरु के विविध द्रव्यों का क्या प्रभव है ?--कांचनमयी भूमि पर जो जलपात हुआ है उसके गर्भ में नाना प्रकार के बीज हैं। बहुविध प्रभाव के वायु से वह अन्तहित होते हैं और भिन्न रत्नों को अवकाश देते हैं। इस प्रकार जल का रूपान्तर होता है, जल का रन हो जाता और भिन्न रत्नों को अवकाश देते हैं । इस प्रकार जल का रूपान्तर होता है, जल का रल हो जाता है। जल हेतु है, रत्न हेतु से भिन्न कार्य है। इनका युगपद्भाव नहीं है। यह सांख्यों के परिणाम से भिन्न है। परिणाम से सांख्यों का क्या अभिप्राय है ? ---वह मानते हैं कि एक द्रव्य (धर्मिन्) में धमों की उत्पत्ति और निवृत्ति होती है। इस वाद में कहाँ अयुक्तता है ?-हम यह नहीं मान सकते कि द्रव्य नित्य अवस्थित रहता है और उसमें धर्मान्तर की निवृत्ति पर धर्मान्तर का प्रादुर्भाव होता है । ---किन्तु सांख्यों का यह मत नहीं है कि धर्मी धर्मो से पृथक् है। उनका कहना है कि जब एक धर्म का परिणाम होता है तब यह विविध [१४३] स्वभाव का आश्रय होता है । इस धर्म को वह धर्मी कहते हैं। दूसरे शब्दों में परिणाम द्रव्य का अन्यथा-भाव मात्र है। यह वाद भी मान्य नहीं हो सकता। क्यों?—क्योंकि ४ १ २ महाव्युत्पत्ति, १९४, धर्मसंग्रह, १२५, महावस्तु, २.३००, शिक्षासमुच्चय, २४६, अत्थसालिनी, २९८ और जातक, ६. १२५ का क्रम भिन्न है। । ये जातक के ७ परिभण्ड पर्वत है। तेन चतुर्वीपकश्चक्रीकृतः (%3D चक्राकारतां गमितः)। अतएव चकवाड इत्युच्यते । सप्त हैमाः स आयसः - चतूरत्नमयो मेरुः लेवी, रामायण, ४५. नानाविधवीजगर्भ, अर्थात् व्याख्या के अनुसार नाना प्रकार सामर्थ्ययुक्त. बहुविध प्रभाव भिन्नर्वायुभिः २.३६ सी-डी, ३, १०० ए, ४, ४, पृ० २०, २२, ५. २६, पृ० ५४, ७. १३ ए, पृ०३८. 'न यवस्थितस्य द्रव्यस्य धर्मान्तरनिवृत्ती धर्मान्तरप्रादुर्भावः । अर्थात् न हयवस्थितस्य रूपरसाद्यात्मकस्य क्षीर निवृत्तौ दधिजन्म, हम यह नहीं मान सकते कि रूप, रसादि वहीं रहते हैं किंतु दुग्ध को निवृत्ति पर दधि का प्रादुर्भाव होता है। ४ ५