पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३७७

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तृतीय कोशंस्थान : लोकनिर्देश यह अपूर्व युक्ति है, यह स्ववचन-विरुद्ध है । आप मानते हैं कि वह (कारण) यह (कार्य) है और यह वैसा नहीं है। सुवर्ण, रूप्य, रत्न और भूमि जो इस प्रकार उत्पन्न होते हैं सन्निपतित होते हैं और कर्माधिपत्य से उत्पादित वायु से इनका समुदाय होता है। यही पर्वत बोर द्वीप हैं। ५० बी-५१ वी . मेरु ८०,००० योजन जल में मग्न है और ८०,००० योजन जल से ऊर्व है। अन्य आठ पर्वतों में अर्थ वर्ष की हानि होती है। पर्वतों का उच्छाय और धन सम है। पर्वत कांचनमयी भूमि पर प्रतिष्ठित हैं और ८०,००० योजन तक जल में निमग्न हैं। मेर इतने ही योजन जल से ऊर्च है और इसलिए १ लाख ६०,००० योजन जल में मग्न और जल से उच्छ्रित है। युगन्वर ४०,०००, ईपावर २०,००० योजन जल से उच्छ्रित है । एवमादि यावत् चक्रवाड जो ३१२५ योजन उच्छ्रित है।' जितना वह जल के ऊपर उच्छ्रित है उतना ही पर्वतों का घन है । कारिका में 'धन' शब्द का अर्थ 'चौड़ाई है । ५१ सी-५२ सी. पर्वतों के अन्तराल में सात सीता है। इनमें से प्रथम ८०,००० योजन है। [१४४]-यह आभ्यन्तर समुद्र है । वाह्य पार्वतः इसके ३४८०,००० के चार पार्श्व हैं। अन्य सीताओं की अब अर्व हानि है।-शेप वाह्य महोदधि है। यह तीन लक्ष २२ सहन्न योजन है।' ऊर्ध्व है। 'तदेवेदम् न चेदं तया । आप को पूर्वोत्तर क्षणों का (दुग्ध....दधि) अन्ययात्व इष्ट है। अतः कोई परिणाम नहीं है, एक ही वस्तु का एक अवस्था से दूसरी अवस्था में गमन नहीं है क्योंकि जिनका अन्ययाम है उनका अन्यत्व है जैसे देवदत्त और यज्ञदत्त का। जलेऽशीतिसहस्रके। मग्न ऊध्वं जलान्मेरुभूयोऽशीतिसहलकः॥ अर्थार्षहानिरष्टातु समोच्छ्रायघनाश्च ते। सद्धर्मस्मृत्युपस्यान में (लेबी,रामायण, ४६) यया अत्यसालिनी (२९८) में मेरु ८४००० वसुबन्धु महाचक्रवाड का उल्लेख नहीं करते, महाव्युत्पत्ति, १९४, १२, लोटस ८४२, धर्म- संग्रह, १२४, और टि०, प०६५, डिक्शनरी अव सेंट पीटर्सवर्ग-धील ४५ के चमवाड का उच्छ्राय ३०० योजन है। अत्यसालिनी (२९९) में चक्रवाड ८२००० जल में मग्न है, ८२००० जल से अर्ध्व है। सीताः सप्तान्तराण्येषामाद्याशीति सहत्रिका । आभ्यन्तरः समुद्रोऽसौ त्रिगुणः स तु पार्वतः। अर्धार्चेनापराः सीताः शेष वाह्यो महोदधिः लक्षत्रयं सहस्राणि विशति च शुभआन-बाङ इस संस्करण का शोध करते हैं। यह काफी कठिनाइयां पैदा करता है: "पर्वतों के अन्तराल में अर्थात् मेरु, युगन्धर.. ..चक्रवाड के अन्तराल में] ८ समुद्र है। पहले सात आन्यन्तरिक (समुद्र) हैं। पहले आयाम का ८०,००० है और चार पायों में से प्रत्येक के वाह्य परिधि का विस्तार त्रिगुण है। अन्य ६ में माया मात्रा ह्रास होता जात है। ८ वा वाह्य (समुद्र) है और ३२१००० योजन है।"