पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३७८

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३६८ अभिधर्मकोश मेरु से लेकर निमिन्धर तक पर्वतों के अन्तराल में सीता हैं। इनमें अष्टांगोपेत जल भरा

यह जल शीतल, अच्छ, लघु, स्वादु, मृदु, निष्पूतिगन्धिक है। यह जल पीने में कुक्षि या .

कण्ठ को बाधा नहीं पहुँचाता। मेरू और युगन्धर के अन्तराल में पहली सीता है। इसका आयाम ८०,००० योजन है। युगन्धर के तीर से बाह्य पावतः गणना कर प्रत्येक पार्श्व त्रिगुण है अर्थात् २ लाख ४० हजार योजन आयाम है। अन्य सीताओं का मायाम आधा २ घटता जाता है : युगन्धर और ईर्षाधर के अन्तराल की दूसरी सीता का आयाम ४० हजार योजन है, इसी प्रकार यावत् सातवीं सीता जो विनतक और निमिन्धर के अन्तराल में है और जिसका आयाम १२५० योजन है। पार्श्व के परिमाण की गणना में कोई कठिनाई नहीं है। [१४५] सात सीता आभ्यन्तरिक समुद्र हैं। शेष अर्थात् निमिन्धर और चक्रवाड के अन्तर में जो जल है वह बाह्य महोदधि है । यह लवण जल से भरा है। इसका आयाम ३ लाख ४० हजार योजन है। लक्षनयं सहस्राणि विशतिढे च तत्र तु। जम्बुद्वीपो द्विसाहलस्त्रिपार्श्वः शकटाकृतिः ॥५३॥ २ कारिकाओं की जो अधूरी पाण्डुलिपि मिली है उसका पाठ सीता है। 'शीतल' कहीं नहीं मिलता।--लोचव : सात सरोवर जिनके जल में कोमल लहरें उठती हैं मानों वायु के संगीत पर नृत्य करते हैं" (शरच्चन्द्रदास) । जातक ५४१ के नायक मेरु को समन्ततः परिक्षिप्त करने वाले सात पर्वतों को देखते हैं (सत परिभण्डपब्बते)। ये पर्वत सोदा नाम के महासमुद्र के अन्तर में है (सोदान्तरे, सोदामहा- समुदस्स अन्तरे)। इस समुद्र को ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि इसका जल इतना सूक्ष्म (सुखुम) है कि यह मयूर के एक पक्ष को भी वहन नहीं कर सकताः यह डूब जाता है (सोदति) (जातक, ६. १२५)-३.५७ से तुलना कीजिये । व्याख्या में अष्टांगसंग्रह का श्लोक है: शीतलाच्छलधुस्वादुमदु निष्पूतिगन्धिकम् । पीतं न बाधते कुक्षि न कण्ठं क्षिणोति तज्जलम् ॥ दिव्य, १२७, १९-सुखावती के ह्रद के जल के ८ गुण, बील, कदेना, ३७९ में बील शुआन्- चाङ करण्ड ह्रद (बील, शुआन-चाङ २. १६५, १. १० भी देखिये) ' आचार्यों का एकमत्य नहीं है। हमने देखा कि अमण्डल और काञ्चन मण्डल का तिर्यक १२०३४५० हैं। दूसरी ओर चक्रवाड नाम इसलिये है क्योंकि यह चतुर्कीपक लोकधातु को, समन्ततः चक्राकार में घेरा है। यदि ऊपर दी हुई संख्याओं को जोड़ें (४०००० मेरु का आधा प्रथम सीता ८००००, युगन्धर ४००००, दूसरी सीता २००००.... कि चकवाड कांचनमयो भूमि के तट पर नहीं प्रतिष्ठित है। अतः कुछ वादियों का विचार है कि बाह्य समुद्र जो निमिन्धर और चक्रवाड के अन्तराल में हैं ३२३२८७,५० योजन होगा (बील, पृ० ४६ में ३२२३१२ है)। किन्तु दोष का दो तरह से परिहार हो सकता है: या तो हम यह माने कि चकवाड तद पर विन्यस्त नहीं है और यह अन्मण्डल को नहीं किंतु कचिनमयो भूमि के अवभाग को चक्राकार घेरे हैं, अथवा हम यह फि पर्वतों के इस वर्णन को कि "यह उच्छाय और धन में समान है" (३. ५१ बी) अक्षरशः न लेना चाहिये। पर्वतों के तट अत्यन्त छिन्न नहीं होते (अत्यन्तच्छिन्नतट)। R ..) तो हम पाते हैं माने