पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३८२

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३७२ अभिधर्मकोश ५८, नीचे २० सहस्र योजन पर उसी परिमाण की अवीचि है। उसके ऊपर ७ नरक है। आठों के १६ उत्सद हैं। जम्बुद्वीप से २० सहस्र योजन नीचे अवीचि नाम का महानरक है । इसकी ऊँचाई और चोड़ाई २०,००० योजन है । अतः इसका भूमितल जम्बुद्वीप के तल से ४०,००० योजन नीचे है। इस नरक को अवीचि क्यों कहते हैं ?- दो निर्देश हैं : [१४६] १. क्योंकि इस नरक में दुःख की वीचि (अन्तर) नहीं है। अन्य नरकों में दुःख निरन्तर नहीं होता यथा संजीव में पहले शरीर भग्न होते हैं यहाँ तक कि रजकण हो जाते है : पश्चात् शीतवायु उनको पुनर्जीवित करती है और वह सचेतन हो जाते हैं। इसीलिए उसका नाम संजीव है। २. क्योंकि वहाँ सुखावस्था (वीचि) नहीं है। अन्य नरकों में विपाकज सुखवेदना का सर्वथा अभाव होता है किन्तु निष्पन्दज (२.५६ सी) सुखावेदना होती है। अवीचि के ऊर्व, प्रतापन, तपन, महारीरव, रौरव, संघात, कालसूत्र और संजीव यह सात नरक एक दूसरे के ऊपर हैं। एक दूसरे मत के अनुसार इन सात नरकों का विन्यास उसी तल पर है जिस तल पर अवीचि अवस्थित है। इन नरकों में से प्रत्येक के १६ उत्सद हैं (पृ० १५२, देखिये) । भगवत् के इस वाक्य से यह सिद्ध होता है : ". ये ८ नरक हैं जिनका मैंने व्याकरण किया है। ये दुरतिक्रम हैं। ये रौद्र सत्वों से आकीर्ण हैं। प्रत्येक के १६ उत्सद हैं। इनके चार प्राकार और चार द्वार हैं। ये जितने लम्बे हैं उतने ही चौड़े हैं। इनके चारों ओर लोहे का प्राकार परिक्षिप्त है। । ४ ५ अवः सहलेविंशत्या तन्मानोऽवीचिरस्य हि । तत्र सप्त नरकाः सर्वेऽष्टौ षोडशोत्सदाः। पृ० १४०, टि० ३, ८४००० योजन कांचनमयी भूमि और जम्बुद्वीप तल के बीच। अवीची और अवीचि, बोधिचर्यावतार, ६.१२०,७.७, राष्ट्रपालपरिपृच्छा, ३० ! अवीचि का भूगोल-- सद्धर्मस्मृति में, शिक्षासमुच्चय, ७० । अंगुत्तर, १. १५९, दोघ, ३. ७५ में एक ऐसे देश के वर्णन में जहाँ की आबादी बढ़ गई है, 'अवीचि म' यह वाक्य आता है।-रौद्र अवीचि जिसके चार द्वार हैं, इतिवृत्तक, ८६ और चुल्लबग्ग, ७. ४, ८--कामयातु का अवापर्यन्त, धम्मसंगणि, १२८१--अवीचि नाम सुत्तनिपात, पृ. १२१, संयुत्त, १. १५४ में नहीं है (डेविडस कृत टिप्पणी, डायलाग्स, ३. पृ.७३) । अवीचिसंततिसहितम् (यह 'सदा' का निरूपण है), महानिस, १८, ३४७--विसुद्धि, ४४९ में अवीचि जरा का पर्याय है (रीज डेविड्स पालिकोश) यह दूसरा निर्देश अमरकोश की महेश्वरकृत टीका में पाया जाता है : न विद्यते वीचिः सुखं चत्र। तिब्बती में इसके लिये दो शब्द प्रयुक्त होते हैं। एक का अर्थ है "विना अन्तर (आइटेल का कहना है कि वहाँ उपायगति के सत्व निरन्तर मरते और पुनरुत्पन्न होते रहते हैं।) और दूसरे का अर्थ है "विना पीला के " जे. पो. टी. एस, १८८६,२३, किंतु उसने निलो हुए तिब्बती शब्द का अर्थ है "विना सुख के" । t 1