पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३८४

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अभिधर्मकोश '-अपाय [१५१] इन नरकों के प्रत्येक द्वार पर पाये जाते हैं : १. कुकूल---यह एक आग की जलती हुई भट्टी है जिसमें घुटनों तक उसे डाल देते हैं। जब अपायगति का जीव अपना पैर वहाँ रखता है तो उसका चर्म, मांस और रक्त नष्ट हो जाता .. है । जब वह पैर ऊपर उठाता है तो उसका पुनः सम्भव होता है।' २. कुणप-गूथ-कर्दम है जहाँ सूचीमुख नामक जल के प्राणी होते हैं जिनके शरीर श्वेत और सिर कृष्ण होते हैं और जो अपाय सत्वों की अस्थियों तक को छेदते हैं।' ३. क्षुरमार्ग या क्षुरधारमार्ग- के त्वक्, मांस और शोणित विनष्ट होते हैं जब वह अपना पैर वहाँ रखते हैं। असिपत्रधन-असिपात्र से अंग-प्रत्यंग का छेद होता है। श्याम शबल' कुत्ते इनका भक्षण करते हैं। अयः शाल्मलीवन' यह १६ अंगुल के कण्टकों का वन है । जब अपाय वृक्षारोहण करते हैं तब कण्टक नीचे की ओर घूम जाते हैं। जब वह वृक्ष से नीचे उतरते हैं, तब कांटे ऊपर घूम जाते हैं। अयस्तुण्ड वायस अपायों की आँखें निकाल कर उन्हें खाते हैं। दुःख के इन तीन प्रदेशों का एक उत्सद होता है क्योंकि यह यातना के स्थान हैं। ४. चतुर्थ उत्सद वैतरणी नदी है जिसका जल उवलता रहता है और जिसमें प्रज्वलित राख होती है। दोनों तीरों पर हाथ में असि, शक्ति और प्रास लिये हुए पुरुष होते हैं जो उन अपाय सत्वों को जो उससे बाहर आना चाहते हैं उसमें फिर ढकेल देते हैं। वह कभी जल में मन्तर चार उपनिरय हैं: गूथनिरय, कुक्कुलनिरय, सिंवलियन, असिपत्रवन । खारोदका, नवी सबके समन्ततः है। इस नदी को कम से कम एक बार वैतरणी बताया है (जातक ६.२५०; इसका उल्लेख पिजिलुस्की, अशोक १३२ में है)। धीर्घ के ३० वे सूत्र में १६ उत्सद हैं जो दो चक्रवाडों के अन्तर में अवस्थित हैं। इसी प्रकार कुनाल सूत्र में (पिजिलुस्को, अशोक १३५,१३६)। वसुबन्धु के अनुसार १६ उत्सद हैं। वह नदी (वैतरणी) को भी एक उत्सद मानते हैं और वनादि का एक उत्सद मानते हैं। जातक, १. १७४ में ः अठ्ठपन महानिरये सोदस उस्सदनिरये; वही २.३ में एक पाकार- परिक्सित्तचतुद्वार नगर है जो एक उस्सद निरय है जहाँ उपाय गति के अनेक जीव कष्ट पाते हैं। कुकूल महावस्तु, १. २ का कुक्कुल है = ३० ४५५; परमार्थः "प्रज्वलित भस्म'-शिक्षा- समुच्चय में तुलना कीजियेः पादः प्रयिलीयते। उत्क्षिप्तः पुनः सम्भवति ।-नंजिओ १२९७ में कुकूल को यात्रा का वर्णन है। कुणप (महावस्तु, वही) देवदत्तसुत्त का 'गूथनिरय है। संयुत्त, २. २५९, पेतवत्यु, ६४ में गूथकूप है- यहाँ सूचीमुख प्राणी होते हैं (न्यट्कुटा नाम प्राणी, महाव्युत्पत्ति, २१५, २० या न्यङ कुटा); पालि सूचीमुखपाण', संयुत्त, २.२५८ से कीजिये शिक्षासमुच्चयः ६९-७९ में सद्धर्मस्मृति। महावस्तु में क्षुरमार्ग नहीं है, कारण्डव्यूह, ३८ में इसका वर्णन है। देवदूत में असिपत्रवन सिबलिवन के समनन्तर है। महाव्युत्पत्ति, २१५ से तुलना कीजिये। देवदूत का सिवलिवन, द्वाविंशत्यवदान में ( आर टर्नर ) कण्टक ८ अंगुल के ' वैतरणी (= खारोदका नदी) पर लेवी, रामायण हापकिन्स, सैक्रेड रिवर्स २२२. सुहल्लेखका 'विना तीर्थ के", जे पी टी एस १८८६. २१ । २ तुलना ।