पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३८५

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश ३७५ [१५२] मग्न होते हैं, कभी जल के ऊपर पाते हैं, कभी अनुस्रोत जाते हैं, कभी प्रतिस्रोत जाते हैं, कभी दोनों दिशाओं में तिर्यक् जाते हैं या इतस्ततः जाते हैं। वह इस प्रकार तप्त और पच्यमान होते हैं। उनकी वही दिशा होती है जो तप्त कुम्भ में प्रक्षिप्त तिल तण्डुल की होती है। नदी परिखा के समान महानिरय को परिक्षिप्त करती है। महानिरय के चारों द्वार पर मे उत्सद पाये जाते हैं। इसलिए स्थान भेदवश चार उत्सद के १६ होते हैं। 'उत्सद' शब्द का क्या अर्थ है ?' इन्हें उत्सद कहते है क्योंकि ये अधिक यातना के स्थान हैं। नरकों में अपाय सत्वों को यातना पहुँचाते हैं, उत्सदों में अधिक यातना देते हैं। स्थविर मनोरथ के अनुसार (ऊपर पृ० ७०), ये 'उत्सद' इसलिये कहलाते हैं क्योंकि नरकावरोध के अनन्तर ये सत्व उत्सदों में पतित होते हैं। एक प्रश्न से दूसरा प्रश्न उत्पन्न होता है। यहाँ ऐसे सत्वों का उल्लेख है जो वैतरणी के तीर पर रहते हैं। क्या ये नरकपाल सत्व हैं ?' । परमार्थः उत्सद = उद्यान, शुआन-चाङ आधिक्य, वृद्धि। सेनार महावस्तु, १. ३७२, - हार्डी, मैनुअल २७ (ओसुपत्); शिक्षा समुच्चय, ५६,६, २४८, ५। व्याख्या : अधिकयातनास्यानत्वादुत्सद : । नरकेषु. . . . . . . नरकावरावादूज़ एप कुफू- लादिषु सीदन्त्यतस्त उत्सदा इत्यपरः। 'उत्' शब्द का अर्थ 'अधिक' या 'ऊर्ध्व' है। विभाषा, १७२, ७ में बताया है कि इन परिशिष्टों को 'उत्सद' क्यों कहते हैं। फु-कुण्डः के अनुसार इसमें ३ हेतु हैं। फ-पाओ के अनुसार २: क्योंकि दुःख अत्यन्त तोव विविध, और अधिक है। उत्सदों में निवास १०००० वर्ष का है, निरय में अनियत या अनन्तताल के लिये है। (मज्झिम, १.३३५) पेतुवत्यु, पृ. ४६ में एक 'सत्तुस्सद निरय' है (इसका उल्लेख रोज डेविडस स्टोड में है)। इसका अर्थ, जैसा दोघ, १.८७ में किया है, 'सत्वों से व्याप्त है। वील कंटीना ६५ में है कि उपाय सत्व अवीचि से शीत नरकों में प्रक्षिप्त होते है, वहां से तिमिराच्छन्न नरकों में, इत्यादि । विभाषा, १७२, ८-कथावत्यु, २०,३ में इस पर विवाद है।-अन्धक इस सूत्रवचन के आधार पर (जिसका पता नहीं चलता है) निरयपाल नामक सत्वों का प्रतिषेध करते हैं: यह चेम्स नहीं है, न प्रेतों का राजा है . ये उनके स्वयं कम है जो उपायसत्वों को यातना प? चाते हैं।"-वसुबन्धु विज्ञप्तिमात्र विशक, कारिफा ४ में (म्यूजिओं, १९१२, ५३. ९० में इसका अनुवाद तिब्बती भाषान्तर के आधार पर है। तिब्बती भाषा का संस्करण और अनुवाद एस लेवी का है, १९२६) दिखाते है कि निरयपाल, श्वान, वायस, असि प्राकार . आदि का अभाव है। किओकुगा विज्ञक को एक टीका से उद्धृत करते हैं: "कोई विश्वान करते हैं कि निरयपाल सत्व हैं। महा सांधिक और समितियों का यह मत है । कोई मानते हैं कि वे सत्व नहीं है किन्तु कर्माभिनिवृत्त भूतभौतिक मात्र है। यह सर्वास्तिवादी आदि का मत है। दूसरों का मत है कि यद्यपि ये तत्व नहीं हैं तयापि वासना (कर्म और वित्त को पासना) से संजात होने के कारण ये चित्त के विपरिणाममात्र नहीं है। यह मत मात्रान्तिका का है।" कर्मोत्पादित स्त्रियों से तुला कीजिये, शिक्षासमुच्चय, ६७-७६.