पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३८६

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अभिधर्मकोश [१५३] ये सत्व नहीं हैं। तो फिर इनकी चेष्टा कैसे होती है ?--विवर्तनी वायु के समान, सत्वों के कर्मदश। --तो फिर धार्मिक सुभूति के इस वचन का क्या व्याख्यान है : "जो क्रोधी सत्व क्रूर कर्म और सावद्य का अनुमोदन करते हैं, जो दूसरे को दुःख देखकर हष्ट होते हैं, वे यमराक्षस' का जन्म लेते हैं ?"२ ये यमराक्षस कहलाते हैं। ये 'नरकपाल' नहीं है जैसा कि आप समझते हैं और जो यातना देते हैं। वे यम के दूत हैं जो यम के अनुशासन से सत्वों को नरक स्थानों में प्रक्षिप्त करते हैं।' एक दूसरे मत के अनुसार 'नरकपाल' सत्व हैं। -नरकपालों के नरककृत क्रूरकर्मों का कहाँ विपाक होता है ? –इन्हीं नरकों में। जब इन्हीं नरकों में आनन्तर्यकारी (३.६७) के विपाक का अवकाश है तो इन नरकपालों के विपाक में क्या प्रतिबन्ध है ?—किन्तु नरकपाल अग्नि के मध्य में होते हुए क्यों नहीं दग्ध होते? क्योंकि कर्माधिपत्यवश अग्नि की एक अवधि होती है और अग्नि उन तक नहीं पहुँचती अथवा इसी कारण नरकपालों का [१५४] शरीर भूत- विशेष से निर्वृत्त होता है जिससे वे दग्ध नहीं होते। ५६ सी-डी आठ अन्य भरक है : अर्बुद आदि शीत' नरक । ‘विवर्तनीषायुयत्-यया विवर्तनों के समय भाजनलोक की अभिनिवृत्ति के लिये वायु का ईरण होता है (चेष्टन्ते)।-जिन्हें 'नररूपाल' नाहते हैं वे भूतभौतिक मात्र हैं, वे असत्वास्थ हैं, १. १० वी. धार्मिक सुभूति का उल्लेख ऊपर ३. १३ ए. में हुआ है। यहाँ एक श्लोक उद्धृत करते हैं जिसका अन्तिम पद है : (जायन्ते) यमराक्षसाः कदाचित् यह दशाकुशल फर्मपनिर्देश (लेवी, जे. ए एस. १९२५, १. ३७) से उद्धृत है। इस आचार्य और इस नाम से मिलते जुलते नाम के अन्य आचार्यों पर (सुभूति घोष) एफ० उब्ल्यू० थामस, एल्बम गर्न ४०७ लेबी, इंडियन नोट्स, जे ए एस १९२५. १. ३६. (धानिक सुभूति–तरानाथ के अनुसार यह अश्वघोष को एक नाम है)। 'देवदूतोयसूत्रोकतेन अनुशासनेनानुशिष्टास्तान सत्वान् नरकस्थानेषु प्रक्षिपन्ति यमराजधानी- निवासिनः. 'कृताधित्वात्। भूतविशेषनिवृत्तेर्वा-परमार्थ में इतना अधिक है। वे अन्य सत्वों से भिन्न नहीं है जो नरक में उत्पन्न होते हैं। वे नरकपाल कैसे होने?" नागसेन, पृ. ६७ बताते हैं कि सामान्यतः उपापसत्व अग्नि से विनष्ट क्यों नहीं होते। 'शीता अन्येऽष्टावबंदादयः॥ जे पिजिलुस्की, अशोक १३५ कहते हैं कि दीर्घ के ३० में में १० शीतनरकों का उल्लेख है (इनको दो चक्रवाडों के बीच में रक्खा है)। वे यह भी कहते हैं कि इनका उल्लेख संयुत्त १. १५२ (फीअर जे ए एस १८९२, २. २१३), अंगुत्तर, ५. १७२, सुत्तनिपात (कोकालिय शुत) में है : अन्जुद, निरब्बुद, अवद, अटट, अहह (या अहह, अटर), कुमुद, सोगन्धिक, उप्पल (या उप्पलक), पुण्डरीफ, पदुम--८ उष्ण महानिरयों को मिलाकर कुल १८ निरय है। जैसा कुनालसूत्र में है (मिजोलुल्को, १३६)। (फोअर जे ए एस १८९२, २. २२० "शीत नरकों के नाम केवल शरीर दण्ड के वर्षों की संख्या सूचित करते हैं" ऊपर पृ०१७६ देखिये)- शावन फाइव हंड्रेड एकाउंटस, २. ३४१ : अर्बुद सैकड़ों और हजारों हैं। निरयों को संख्या ३६ है। महाव्युत्पत्ति, २१५, १-८; दिव्य, ६७. अनुवाद बुरनफ़, इंट्रोडक्शन २०१ (तुरमा महापन को एकता फोकुएकि, पृ० २९८-९ की टिप्पणी के पुण्डरीक सूत्र