पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३८७

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश ३७७ इन नरकों के नाम से हैं : अर्बुद, निरवद, अटट, हहव, हुहुव, उत्पल, पन, महापद्म । इन नामों में से कुछ (१, २, ६, ७, ८) अपायसत्वों के काय के अनुरूप हैं : इनके काय अर्बुद, पद्मादि आकार के होते हैं. . . . . । अन्य नाम उन शब्द-विकारों के अनुरूप है जो अपाय-सत्व तीन शीत से कष्ट पाकर करते हैं : अटट ... ये शीत नरक जम्बुद्वीप के नीचे महानिरय के भूमितल पर विन्यस्त हैं। नरकों के लिये जो जम्बुद्वीप से विशाल हैं केवल जम्बुद्वीप के नीचे कैसे स्थान हैं ?' धान्यराशि के समान द्वीप नीचे की और विशाल होते हैं । महोदधि [१५५] द्वीपों के चारों ओर अतट उत्तात नहीं होता। (विभाषा, १७२, ७; चुल्लवमा, ६, १.३) सव सत्वों के कर्माधिपत्य से १६ नरकों की उत्पत्ति होती है (२.५६ वी, ३ ६० सी, १०१ सी, ४, ८५ ए)। एक नरक होते हैं-ो प्रादेशिक नरक हैं जिनकी उत्पत्ति एक सत्व दो सत्व, अनेक तत्वों के कर्मों के बल से होती है। इनका वैचित्र्य महान् है। इनका स्थान नियत नहीं नदी, पर्वत, निर्जन वन या अन्यत्र ।'

से दिखाते हैं।) 5 ४ अथवा ८ शीत नरकों को चक्रयाडों के अन्तराल में अवस्थित १० शीत नरकों से विभिन्न बताते हैं। अनेक क्षुद्र नरकों को मिलाकर ये लोकान्तरिक नरक है, आइटेल, पृ० १०६-१०७ किओकुग इस सम्बन्ध में लियेलु , नजिओ, १२९७, सद्धर्मस्मृत्युपस्थान, १८,१ और विभाषा, १७२, ७ का उल्लेख करते हैं। 'लोकान्तरिका अघा अन्धकारा' पर. वुरत्फ, लोटस, ६३१, ८३२, देघ २. १२, दिव्य २०४, हार्डी लीजेंडस ११०, डॉउसन-डेन उपनिषदस ३२२ देखिये। कायशब्दविकारानुरूप विभाषा, १७२,७-यहाँ कोई आक्षेप करता है: "कहते हैं कि जम्बुद्वीप उच्छय में संकीर्ण और नीचे अधिक चौड़ा है। अन्य द्वीपों की आकृति इसके विपक्ष है। क्या यह युक्त है ?" विभाषा, वही -जम्बुद्वीप के नीचे महानिरय हैं । जम्बुद्वीप के भूमितल पर 'प्रत्यन्ति, (बोल कैटीना. ६५, से तुलना कीजिये) और प्रादेशिक नरक है : घाटियों में, पर्वतादि में। अन्य द्वीपों में महानिरयों का अभाव है क्योंकि वहाँ महापाप नहीं होते. .. कुछ के अनुसार उत्तर कुरु में सब निरयों का अभाव है।-अपायसत्व मनुष्याकृति के होते हैं। वह पहले आर्यभाषा में भाषण करते हैं। पश्चात् दुःख से अभिभूत होकर यह एक भी ऐसा शब्द नहीं वोलते जो समझ में आये। प्रादेशिक नरक- शुभआन-चाउ का अनुवाद : एकाको; परमार्य : पृथक्, तिब्बती भाषा- न्तरः क्षणिक (प्रादेशिक चित्त, मध्यमकारतार, अनुवाद. पृ० ४२, प्रादेशि. यान, शिक्षा- समुच्चय, १८३, १०. महाव्युत्पत्ति, ५९, ५)--एक दिन के तीन निरय, समर्मस्मृति, लेवी, रामायण ५३ रोजडेविडसालीड कोष में 'पदेस देखिये। इसका) एक दूसरा नाम 'प्रत्येक नरक 'पञ्चेक निरय है (सुत्तनिपात और पेतुत्यु पी अन- कया । इनका दर्शन संघरक्षित ने किया, दिव्य, ३३५, ३३६, इन्ट्रोडक्शन ३२० (वे नरः जो प्रतिदिन पुनरुपपन्न होते हैं-ऐसा पुरफ तिब्बतीभावान्तर और इस वर्णन के अनुसार कहते हैं)। बुर फ उद्धृत करते हैं: "भूमि तल पर, जलतौर पर और एकान्त स्थलों में जो नरकविन्यस्त है" (ये विभाषा (बोल का अनुवाद, ५७) के (एकाको नरक) हैं)-मज्झिम, १. ३३७ के महानिरय का एक नाम 'पञ्चत्तवेदनिय है। शिक्षासमुच्चय, १३६ का प्रत्येकनरक' कल्पित विहार है। संयत्त, २. २५४ के उपाय-प्रेत