पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३९१

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश योजन हैं। समन्ततः यह २००० योजन है। इसका उच्छ्राय १३ योजन है। यह सुवर्ण का है। [१६२] यह एक शत घातु(वर्ण)से विभूषित है। इसी प्रकार इसका तल चित्रित है। इसके तल का स्पर्श कार्यास वृक्ष के पत्र के समान मृदु है। गमन की सुगमता के लिये इसका उन्नाम, अवनाम होता रहता है। ४. नगर के मध्य में देवराज शक्र का प्रासाद है । इसका नाम वैजयन्त है । यह अपनी नाना रत्न और नाना स्थान की विधान-सम्पत्ति से अन्य सब भवनों की श्री और महिमा को सज्जित करता है। इसके पार्श्व २५० योजन के हैं। नगर के यह आभरण हैं। ५. नगर के बाहर के भूषण चार उद्यान है। चैत्ररथ, पारुष्यक, मिश्रक और नन्दन। यह देवों की क्रीडाभूमि है। ६. इन उद्यानों की चार दिशाओं में बीस योजन' के अन्तर पर चार क्रीड़ास्थान हैं जिनकी भूमि शोभन है, जो चित्तमोहक है और जो आपस में प्रतिस्पर्धा करते हैं। ७. कोविदार जिसे पारिजातक कहते हैं त्रयस्त्रिश देवो का काम' रति के लिये प्रकर्षालय है। इसके मूल ५० योजन गहरे हैं। यह १०० योजन ऊँचा है । शाखा, पत्र और पलाश के साथ यह ५० योजन फैला है। इन पुष्पों की गन्ध वात के साथ १०० योजन जाती है, प्रतिवात ५० योजन जाती है। हो सकता है कि यह वात के साथ १०० योजन जाती है किन्तु यह प्रतिवात कैसे जाती है ? ---एक मत के अनुसार यह प्रतिवात ५० योजन तक जाती है क्योंकि यह गन्ध [१६३] वृक्ष [जो वास्तव में ५० योजन है] का अतिक्रम नहीं करती। [किन्तु यह व्याख्यान युक्त नहीं है क्योंकि वचन है कि यह प्रतिवात है।--अतः हम कहते हैं कि गन्ध प्रतिवात नहीं जाती। वह जहाँ उत्पन्न होती है वहीं उसका ध्वंस होता है। किन्तु इस गन्ध का यह विशेष गुण है कि यद्यपि यह दिव्य ५ 1 २ द ४ दयेणार्धतृतीये योजनशते पार्श्वम् । शुआन-चाङ: इसके सुवर्ण प्राकारों का उच्छ्राय १३ योजन है। घातुसतेन = रंगशतेन नानारत्नस्थानविधानसंपदा सर्वान्यभावनाश्रीमहिमनि ह्वेषण चार उद्यानों पर--महान्युत्पत्ति, १९६, १-४, दिव्य, १९४-१९५ (म्रियमाण देव का विलाप), महावस्तु, १.३२-जैनों के चार उद्यान, एस बी ई ४५, पृ. २८८. चतुर्दिशम् : चतस्रो दिशोऽस्येति चतुर्दिशम् क्रियाविशेषणम् ।-भागुरि के मत से दिक् शब्द अकारान्त होता है। (व्याख्या)। अतः दो रूप हैं-'दिश' और 'दिशा'। ५ कारिका का 'सुभूमीनि': शोभना भूमय एषामिति सुभूमोनि क्रीडास्थानानि । 'पारिजातक (दिव्य, २१९, इत्यादि) जातक, १. २०२, अत्यसालिनी, २९८, विसुद्धिमग, २० (पोराणों का मत) का 'पारिच्छत्तक' है। कामरतिप्रकर्षालयः- कामरति विशेषस्थानम् ‘परमार्य और शुआन्-चाङ -पाँच योजन पंचाशद् योजनानि प्रतिवातं गन्धो वाति। योजनशतम् अनुवातम् वृक्षानतिक्रमम् संधायोक्तम् 6