पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३९५

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तृतीय कौशस्थान : लोकनिर्देश ३८७ रूपधातु में, ७१ सी-डी . तीन सुखोपपत्ति हैं : तीन व्यानों की ६ भूमियाँ।' [१६७[ प्रथम तीन ध्यान की ६ भूमियाँ तीन सुखोपपत्ति हैं। पहले तीन ध्यानों के देव विवेकज, सुख, समाधिज (विचार और वितर्क के विगमन से) प्रीति सुख और निःप्रीतिक सुख (सौमनस्य के विगम से) के साथ दीर्घकाल तक सुख विहार करते हैं (सुखं विहरन्ति) । यह उपपत्तियाँ दुःख के अभाववश, काल-परिमाण वश सुखोपपत्ति हैं। ध्यानान्तर में प्रीतिसुख का अभाव होता है। क्या यह सुखोपपत्ति है ? यह विचारणीय है।' चातुर्महाराजकों से लेकर रूपधातु के सबसे ऊर्ध्व देवों के २२ देवस्थान कितनी ऊँचाई पर अवस्थित है ?--योजनों में इस उच्छाय की गणना करता सरल नहीं है किन्तु स्थानात्स्थानादधो यावत् तावदूचं ततस्ततः। नोर्ध्वदर्शनमस्त्येवामन्यद्धिपराधयात् ॥७२॥ ७२ ए-त्री . एक स्थान से जितना नीचे जाना होता है उतना ही ऊर्व स्थान की ओर ऊपर जाना होता है। दूसरे शब्दों में जितना एक स्थान जम्बुद्वीप के ऊपर है उतना ही वह ऊर्ध्व [१६८] स्थान के नीचे है । यथा चातुर्महाराजकायिकों का चतुर्थ गृह जो चातुर्महाराजिकों का निवासस्थान है यहाँ से ४०,००० योजन ऊपर है। जितना अन्तर उस स्थान से यहाँ तक उतरने में है उतनाही अन्तर इस स्थान से त्रायस्त्रिंशों के स्थान मेरु शिखर, यहाँ से ८०,००० योजन] तक अवरोहण करने में है। जितने योजन का अन्तर बायस्त्रिंशों से यहाँ का है उतने ही योजनों का अन्तर प्रायस्त्रिंशों में यामों तक है । एवमादि : जम्बुद्वीप से जितने योजन ऊपर सुदर्शन है उतने ही योजन सुदर्शनों से ऊपर अकनिष्ठ हैं। सुखोपपत्तयस्त्रित्रो नव त्रिध्यानभूमयः ॥-२. ४५. पृ. २२१ देखिये। ध्यानों के सुख पर ८.९ दीघ, ३. २१८ भिन्न है, कम से कम संस्करण में। सुखोपपत्तित्वं विचार्यम्-सुख का वहाँ अभाव है क्योंकि ध्यानान्तर को वेदना उपेक्षा वेदना है, ८. २३ । अतः यह 'सुखोपपत्ति नहीं है। यह ध्यान कुशल विपाक है, यह सुखकल्प है। अतः यह सुखोपपत्ति है। किन्तु क्या उस अवस्था में चतुर्थ ध्यान में भी सुखोपपत्ति का प्रसंग होगा? नहीं, क्योंकि उस भूमि में सुख का अभाव है। अतः इसका विचार होना चाहिये (विचार्यम्, संप्रधार्यम्)। स्थानात् स्थानादधो यावत् ताबदूर्ध्व ततस्ततः। बौल, कैंटीना, ८२ में गणना के अन्य प्रकार हैं। [विभाषा से उद्धृत, यहाँ दी हुई संख्याओं से उसको संख्या बहुत भिन्न हैं: स्थानों का अन्तर १००००योजन है । इन्-पेन्- सूत्र में यही वाद है। अभिधर्म में : "ब्रह्मलोक से प्रक्षिप्त १०० हस्त के पत्यर के गिरने के लिये। एक वर्ष, अकनिष्ठ से प्रक्षिप्त एक पर्वत के गिरने के लिये ६५५३५ वर्ष।" ज्ञान प्रस्थान में: "रूपावचर प्रथम भूमि से प्रक्षिप्त १० हस्त के पत्थर गिरने में १८३८३ वर्ष।"] इसी प्रकार मिलिन्द, ८२ के अनुसार एक पत्थर के ब्रह्मलोक से गिरने में चार मास लगते हैं क्योंकि एक दिन में ८४००० योजन होता है। सूत्रालंकार हूवर १२७, त्रास्त्रिश लोक ३०००३३६ ली पर है। १