पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३९६

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३८८ अभिधर्मकोश अकनिष्ठों के ऊपर और स्थान नहीं हैं। इसीलिए क्योंकि उनका स्थान अन्य स्थानों से ऊर्ध्व है, उससे कोई स्थान ऊर्ध्व नहीं है, वह अकनिष्ठ कहलाता है। एक दूसरे मत के अनुसार इस स्थान को अघ-निष्ठ कहने हैं क्योंकि अघ का अर्थ 'संघात रूप' है और यह स्थान इस रूप की निष्ठा है। क्या अधः स्थान में उपपन्न सत्व ऊर्ध्व विमान में आ सकते हैं और ऊध्वोपपन्न को देख सकते हैं ? ७२ सी-डी. ऋद्धि था पराश्रय के विना देवों को ऊर्व दर्शन नहीं होता। जब बायस्त्रिंश ऋद्धि से समन्वागत होते हैं या जब वह ऋद्धिमान् का अथवा याम.देव का आश्रय पाते जाते है तब वह यामों में जा सकते हैं। एवमादि।' [१६९] अधः स्थान में उपपन्न अधः स्थान में आये हुए ऊोपपन्न का दर्शन कर सकता है यदि यह सत्व ऊर्वभूमिक, ऊर्ध्वधातुक नहीं है यथा [ऊर्ध्व धातु या ऊर्ध्व भूमि] के स्प्रष्टव्य का संवेदन नहीं हो सकता क्योंकि यह [अधो भूमि की इन्द्रिय का] विषय नहीं है। इसीलिए वह सत्व जो ऊर्ध्व धातु या ऊर्ध्वभूमि के हैं अपने शरीर से अवतरण नहीं करते, किन्तु उस भूमि के ऋद्धिमय शरीर से अवतरण करते हैं जहाँ वह उतरना चाहते हैं (दोघ, २.२१०)।-एक दूसरे निकाय के अनुसार यदि ऊोपपन्न की इच्छा हो तो अधोभूमिक सत्व उसे उसी प्रकार देखते हैं जैसे वह अपनी भूमि के सत्वों को देखते हैं। याम और अन्य देवों के स्थान का परिमाण क्या है ? एक मत के अनुसार कामाववर चार ऊर्ध्व देवनिकायों के स्थानों का परिणाम वही है जो मेरु-शिखर का है । दूसरों के अनुसार ऊर्ध्व स्थान अधःस्थान का द्विगुण है। दूसरों के अनुसार प्रथम ध्यान का परिमाण चतुर्दीपक के परिमाण के बराबर है। द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ ध्यान ९ t ३ व्याख्याः तदुत्कृष्टतरभूम्यन्तराभावानेते कनिष्ठा इत्यकनिष्ठाः । महाव्युत्पत्ति, १६१, ५-६ में दो आख्या हैं : अकनिष्ठ और अधनिष्ठ देव । ऐसा प्रतीत होता है कि अघनिष्ठ बोधिसत्वभूमि की हस्तलिखित पोथी का पाठ है, वोगोहारा देखिये ।-- अघ पर कोश, १. २८ ए, अनुवाद, पृ० ५० और रोज डेविड्स और स्टीड के हवाले । रोज डेविड्स और सीड में 'कनि' शब्द के नीचे देखिये : "अकनिभवन में अकनिट, जातंक, ३. ४८७, धम्मपद-अट्ठकथा, अकनिद्वगामिन, संयुत्त, श्लोक २३७. विभंग ४२५ से उद्धृत कर सकते हैं (अनिदेव); धम्मसंगणि, १२८३ (रूपधातु की इयत्ता), दीघ, २. ५२, ३. २३७ आदि नोर्ध्वदर्शनम् अस्त्येषाम् अन्यत्र ऋद्धिपराश्रयात् ॥ ऋद्धया वा नास्त्रिशा यामान् गच्छेयुर्यदि ऋद्धिमता नोयेरन् देवेन वा तत्रत्येन । आगतं तूोपपन्नं पश्येदिति समान भूमिकं नोर्श्वभूमिकस् चातुर्महाराजिक और वार्यास्त्रश समानभूमिक है (क्योंकि दोनों मेरु के निवासी हैं)। यामादि चार शेष कामावचर देव-निकाय भिन्न भूमियों के हैं । रूपघात में चार ध्यान हैं; यही चार भूमियाँ हैं। प्रथमध्यानोपन्न. देव द्वितीयध्यानोपपन्न को नहीं देखता। यथा स्प्रष्टव्यम् (अविषयत्वान्न स्पृश्यते)---यह उदाहरणमात्र हैं। हम यह भी हैं "यथा शब्द नहीं सुना जाता. तदिच्छयहत्यम् इव पश्यदिति निकायान्तरीयाः-महासांघिक जो संघभद्र का खण्डन करते हैं। ४ २ 3 कह सकते 3)