पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४०४

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३९६ अभिधर्मकोश परमाणु रूप का पर्यन्त है । इसी प्रकार अन्तर नाम का पर्यन्त है यथा गो। क्षण' अध्वन् का पयन्त है। क्षण का प्रमाण क्या है ?--प्रत्ययों के विद्यमान होने पर जो कालं एक धर्म की उत्पत्ति में लगता है वह क्षण है; अथवा गतिमान् धर्म को एक परमाणु से दूसरे परमाणु को जाने में जो काल लगता है वह क्षण है। [१७८] वैभाषिकों के अनुसार एक बलवान् पुरुष को अच्छटा (उगलियों की चटखार) में ३५ क्षण व्यतीत होते हैं। ८५ डी-८८ ए. परमाणु, अणु, लोहरजस्, अब्रजस्, शशरजस्, अविरजस्, गोरजस्, छिद्ररजस्, लिक्षा, लिक्षा का उद्भव, यव और अंगुलिपर्व-~-इनमें से प्रत्येक पूर्व का सप्तगुना है। २४ अंगुलि का एक हस्त, चार हस्त का एक धनुष, ५०० धनुष का एक ६ योगसूत्र, ३. ५२ पर भोजराजः क्षण काल का सबसे छोटा विभाग है। इसका और विभाग नहीं हो सकता।--षड्दर्शन, पृ. २८. यह दो लक्षण सौत्रान्तिकों के हैं। २.४६ ए, अनुवाद, पृ०. २३२ में वैभाषिकों के लक्षण का उल्लेख है : कार्यपरिसमाप्तिलक्षण एष नः क्षणः-- अत्थसालिनी, पृ. ६० (नीचे) में उल्लेख है कि एक रूप के स्थितिकाल में १६ चित्त उत्पन्न और निरुद्ध होते हैं। दूसरा लक्षण जैनों के 'समय' (यह उनका 'क्षण' है) का स्मरण दिलाता है .(तत्वाधिग, ४. १५ (एस० सी० विद्याभूषण जे ए एस १९१०, १. १६१) जैकोबी का अनुवाद जे अलमाँद ओरिएंट' जर्मन सोसायटी भाग ४०, १९०६): परमसूक्ष्म क्रियस्य सर्वजघन्यगतिपरिणतस्य परमाणोः स्वावगाहनक्षेत्रव्यतित्रम काल: समय इति ।- याकोबी के अनुसार ः “समग्र वह काल है जिसे परमाणु, जिसकी क्रिया अत्यन्त सूक्ष्म है और जिसको गति सर्वजघन्य है, स्वावगाहन में व्यतिक्रान्त करता है।" एक आवलिका के लिए 'असंख्येय' समय चाहिये; एक प्राण के लिये 'संख्येय' (प्राण = १ स्तोक, ७ स्तोक = १ लव, ३८३ लव = नालिका (= घटी) २ नालिका १ मुहूर्त) गणितसार संग्रह, १. ३२ से तुलना कीजिये (महावीराचार्य का गणित का ग्रन्थ । एस० रंगाचार्य, मद्रास १९१२ ने इसका अनुवाद और प्रकाशन किया है।) अणुरण्वन्तरं काले व्यतिकामति यावति। स कालः समयोऽसंख्यैः समयैरावलिभवेत् ॥ जितने काल में एक (गतिमान्) अणु दूसरे अणु का व्यतिक्रम करता है (उसका समनन्तर होता है) वह 'समय' है; असंख्य समयों को एक 'आवलि होती है। मध्यकवृत्ति, ५४७ में उद्धृतः बलवत्पुरुषाच्छटामात्रेण पञ्चषष्टिः क्षणा अतिक्रमन्तीति पाठात---महाव्युत्पत्ति, २५३, १०, अच्छयासंधातमात्र, दिप, १४२, पालि, अच्छरा । विभाषा, १३६, में क्षण पर पाँच मत है। (पहले चार मतों में क्षण का प्रमाण अधिकाधिक न्यून होता जाता है : वसुबन्धु यहाँ दूसरे का उल्लेख करते हैं (सेको को टिप्पणी) । पाँचवाँ मत सुन्छु है (किन्तु सेकी में इसका उल्लेख नहीं है)। पहले चार में केवल क्षण का प्रमाण औदारिक रूप से है। भगवत ने क्षण का यथार्थ प्रमाण नहीं कहा है. क्योंकि कोई सत्व उसे नहीं जान सकता।)--संयुक्त हृदय (?), २०, ३. रोचक है।