पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४०९

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश समाधिज प्रीति-सुख शान्त हैं !" इन शब्दों को सुनकर ब्रह्मलोक के अन्य देव द्वितीय ध्यान में प्रवेश करते हैं और मृत होने पर आभास्वरों के [१४] लोक में पुरुपपन्न होते हैं जब ब्रह्मा के लोक में एक भी सत्व अवशिष्ट नहीं होता तो साव-संवर्तनी निष्ठित होती है और उतनी मात्रा में लोक संवृत्त होता है। ६. तव भाजनलोक के भाक्षेपक कर्म के परिक्षीण होने पर लोकशून्यतावश सात सूर्यो का (३.२०६ देखिये) उत्तरोत्तर प्रादुर्भाव होता है और चतुर्वीप से लेकर मेरुपर्यन्त इस लोक का सर्वया दाह होता है। इस प्रकार इस लोक को दग्य कर वायु से प्रेरित अचिन्त्राझविमान को जलाती जाती है। यह समझ लेना चाहिये कि जो अचि इन विमानों को दध करती है वह रूपधातु की अचि है : कामवातु के विसभाग अपक्षाल रूपधातु में समर्थ नहीं होते। किन्तु ऐसा कहते हैं कि अचि इस लोक से जाकर ब्रह्मा के लोक को दग्ध करती है क्योंकि उस कामावचर अचि से संबद्ध रूपावचर अचि संभूत होती है। इसी प्रकार अप् संवर्तनी और वायु संवर्तनी को जो तेजः संवर्तनी के सदृश हैं किन्तु उससे अधिक ऊँचे फैले हैं यथासम्भव जानना चाहिये। [१५] जव नरकोत्पत्ति बन्द हो जाती है उस समय से लेकर भाजन के विनाश तक का काल संवर्त कल्प कहलाता है। १ तदाक्षेपके कर्मणि परिक्षोणं मध्यम, २, ९; एकोत्तर, ३४, ५, महापरिनिर्वाण (जिओ ,११३) २२, ३३ युगन्धर पर्वत से एक ही समय में सात सूर्य उदय होते हैं। विभाषा, १३३, ७: चार मत हैं: १. सूर्य युगन्धर (?) के पीछे हैं। २. एक सूर्य सात में विभक्त होता है; ३. एक सूर्य को सप्तगुण शक्ति होती है; ४. सात सूर्य जो पहले भूमि के तले छिपे थे पोछे सत्वों के कर्मवंश प्रकट होते हैं। सप्तसूर्यव्याकरण (ऊपर पृ० २०) का उल्लेख लोकप्रज्ञाप्ति,एन्दो ६२, पत्रा ६६ (कास्मा- लोजी, ३१४) में है। शिक्षासमुच्चय, २४७ में पितापुत्र समागम (= रत्नकूट, १९); ११६९, ३१, २-पालि, मिनिएच को ग्रन्यसूची; जपिस्को ९ ३२३ अंगुत्तर ४. ३०० विसुद्धि (४१६). (वारेन ३२१) में सत्तसुरियुग्गमन । अलबरूनी, १. ३२६, हेस्टिग्स पूजेज ऑव द वल्र्ड हापकिन्स, एपिक साइयालोजी १९१५, ८४. ९९. ग्रेट एपिक ७४७५ डिक्शनरी ऑव सेंट पीटर्सबर्ग 'संवत' शब्द देखिये। इस वाद का प्रभव मेसोपोटेमिया में है (?), कारपेंटर, स्टडीज इन द हिस्ट्री मेव तस्मादेव च (प्रज्वलिताद् वायुना आवृतम्) ब्राझं विमानं निर्दहचिः परति। तच्च तदू- भूमिकमेवाचिः। न हि विसभामा अपक्षालाः क्रमन्त। तत्सन्नद्धसम्भूतत्वादू (तस्मादेवे- त्युक्तम्) । ऊपर पृ०२० देखिये। नीचे १०० सी.--शून्य भाजन में सहज अब्धातु उत्पन्न होता है जो भाजनलोक को लवण के समान विलुप्त करता है। यह कामावर अन्यात प्रथमध्यानभूमिक अब्धातु को बांधता है (संबध्नाति)। वह द्वितीयध्यान भमिकको वाँचता है। यह अधातु त्रिभूमिक (कामधातु और दो ध्यान) होते हुये भी अपने अपने भाजन के साथ अन्तहित होता है। वायु संवर्तनी वायु प्रथम तीन ध्यान के भाजनों को पाशुराशि की तरह विकीर्ण करती है (विकिरति, विध्वंसयति । शेष पर पृ. १८७. टिप्पणी. ४ देखिये । रेलिजन ७९. 1 ४ २६