पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४१

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अभिधर्मकोश यह सत्य है कि सूत्र में कहा है कि "संस्कारस्कन्ध ६ चेतचाकाय है"3 और इस लक्षण के अनुसार संस्कारस्कन्ध में १. सब विप्रयुक्तसंस्कार (२. ३५) और २. चेतनावजित संप्रयुक्त- [२९] संस्कार (२. २३ बी, ३४) का असंग्रह है। किन्तु अभिसंस्करण में चेतना का प्राधान्य होने से सूत्र का ऐसा निर्देश है । चेतना कर्मस्वभाव है।' लक्षणतः यह वह हेतु है जो उपपत्ति का अभिसंस्करण करता है । भगवत् का यह भी वचन है कि "संस्कार नामक उपादान- स्कन्ध इसलिए ऐसा कहलाता है क्योंकि यह संस्कृत का अभिसंस्कार करता है"२ अर्थात् यह अनागत स्कन्ध-पंचक का अभिसंस्करण और निर्धारण करता है। अन्यथा सूत्र-निर्देश का अक्ष- रार्थ लेने से यह परिणाम होगा कि चेतनाव्यतिरिक्त शेष चैतसिक (संप्रयुक्त) धर्म और सर्व विप्रयुक्त धर्म (२. ३५) किसी स्कन्ध में संगृहीत न होंगे। इसलिए उनका दुःख-समुदय-सत्यत्व न होगा : न परिज्ञा होगी, न प्रहाण। किन्तु भगवत् वचन है कि “यदि एक धर्म भी अनभिज्ञात, अपरिज्ञात हो तो मैं कहता हूँ कि दुःख का अन्त नहीं किया जा सकता" (६. ३३)। पुनः “यदि एक धर्म भी अप्रहीण हो ..." (संयुक्त, ८, २२) । इसलिए वैत्त और विप्रयुक्त का कलाप संस्कारस्कन्ध में संग्रहीत है। [३०] १५ बी-डो. यह तीन स्कंध, अविज्ञप्ति और असंस्कृत के साथ मिलकर, धर्मायतन, धर्मधातु कहलाते हैं। वेदनास्कन्ध, संज्ञास्कन्ध, संस्कारस्कन्ध, अविज्ञप्ति (१.११) और तीन असंस्कृत (१.५वो) यह ७ द्रव्य धर्मायतन, धर्मधातु कहलाते हैं। ४ 3 3 संस्कारस्कन्धः कतमः । षट् चेतनाकायाः व्याख्या ३७.१६] --संयत्त, ३.६० से तुलना कीजिए : कतमे च भिक्खवे संखारा। छयिमे चेतनाकाया। रूपसंचेतना घम्मसंचेतना विभंग, पृ.१४४; सुमंगलविलासिनी, पृ.६४. १ चेतना कर्म है, (४.१) उपपत्ति का हेतु है । इसके विपरीत तृष्णा अभिनिति (६.३) का हेतु है। २ अर्यात् : "क्योंकि यह संस्कृत का अभिसंस्कार करता है" "--यथा लोक में कहते हैं "ओदनं पचति । ए. (संयुक्त, ३.८७): संखतं अभिसंखरोन्तीति भिक्खवे तस्मा संखारा ति चुरुचन्ति । किंच संखतं अभिसंखरोन्ति । रूपं रूपत्ताय संखतं अभिसंखरोन्ति । वेदनं वेदनसाय थी. संयुक्त ५.४४९ : जातिसंवत्तनिकेऽपि संखारे अभिसंखरोन्ति । जरासंवत्तनिकेऽपि, ....... मरणसंवत्तनिकेऽपि...... ते जातिसंवत्तनिकेऽपि संखारे अभिसंखरित्वा... जातिपपातपि पपतन्ति । ...... सो. अभिसंस्करणलक्षणाः संस्काराः (मध्यमकवृत्ति, ३४३.९); चित्ताभिसंस्कारमन- स्कारलक्षणा चेतना (वही. ३११, १); रक्तः सन् रागर्ज कर्माभिसंस्करोति (वही. १३७, ७, महावस्तु, १.२६ और ३९१)। नाहींफर्ममप्यनभिज्ञाय अपरिज्ञाय दुःखस्यान्तक्रियां चदामि। व्याख्या ३७.३३] 'त इमे प्रयः धर्मायतनधात्यास्याः सहाविज्ञप्त्यसंस्कृतैः ॥ व्याख्या ३८.१२] ४