पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४१०

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४०२ अभिधर्मकोश ६० सी-डी. प्राग्वायु से लेकर नरकोत्पत्ति तक का काल विवर्तकल्प है। प्राग्वायु से लेकर नरकोत्पत्ति तक का काल। हमने देखा है कि किस प्रकार लोकसंवर्तनी होती है। संवर्तनी के अनन्तर दीर्घ काल तक लोक विनष्ट रहता है, २० अन्तरकल्प तक विनष्ट रहता है । जहाँ पहले लोक था वहाँ अव केवल आकाश है। १. जब आक्षेपक कर्मवशे अनागत भाजनलोक के प्रथम निमित्त प्रादुर्भूत होते हैं, जव आकाश में मन्द मन्द वायु का स्पन्दन होता है उस समय से उस २० अन्तरकल्प की परिसमाप्ति कहना चाहिये जिसमें लोक संवृत्त था (संवृत्तोऽस्थात्) और उस २० अन्तरकल्प का आरम्भ कहना चाहिये जिस काल में लोक की विवर्तमान अवस्था होती है।' वायु की वृद्धि होती जाती है और अन्त में उसका वायु मण्डल वन जाता है। पश्चात् यथोक्त क्रम और विधान से सर्व भाजन की उत्पत्ति होती है : वायुमण्डल अन्मण्डल, कांचनमयी पृथिवी, सुमेरु आदि। सदा ब्राह्मविमान प्रथम उत्पन्न होता है और तदनन्तर सब विमान यावत् यामीय विमान संभूत होते हैं। इसके अनन्तर ही वायुमण्डल आदि होते हैं।' अतः भाजन विवृत्त होता है और भाजन-विवर्तनी से इतनी मात्रा में लोक विवृत्त होता है। २. तदनन्तर आभास्वर से च्युत एक सत्व शून्य ब्राह्मविमान में शून्य उपपन्न होता है। अन्य सत्त्व एक दूसरे के अनन्तर आभास्वर से च्युत हो ब्रह्मपुरोहित, [१८६] ब्रह्मकायिक, परनिर्मितवशवतिन तथा अन्य कामावचर देवों के लोक में उत्पन्न होते हैं; उत्तरकुरु, गोदानीय, विदेह, जम्बुद्वीप में; प्रेत और तिर्यक् में; नरक में। स्थिति यह है कि जो सत्व पश्चात् संवृत्त होते हैं वह पूर्व विवृत्त होते हैं। जब नरक में सत्त्व की उत्पत्ति होती है तब २० अन्तरकल्पों का विवर्त कल्पनिष्ठित होता है और विवृत्तावस्था का प्रारम्भ होता है। [विवर्त कल्प का प्रथम अन्तरकल्प भाजन, ब्राह्मविमान आदि की निवृत्ति में अतिक्रान्त होता है । इस कल्प के अवशिष्ट १६ अन्तरकल्पों में नरक सत्य के प्रादुर्भाव तक मनुष्यों की आयु अपरिमित होती है। ६१ ए-बी. एक अन्तरकल्प जिसमें अपरिमिस से आयु का ह्रास होकर १० वर्ष की आयु हो जाती है। विवर्तकल्प के अन्त में मनुष्यों की अपरिमित आयु होती है । जव विवर्तन की परिसमाप्ति होती है तब उनकी आयु का ह्रास होने लगता है यहाँ तक कि १० वर्ष से अधिक आयु का सरस्व नहीं होता (३.९८ सी-डी)। जिस काल में यह ह्रास होता है वह विवृत्तावस्था का पहला अन्तरकल्प है। ६१ वी-डी. पश्चात् १८ कल्प उत्कर्ष और अपकर्ष के होते हैं। ? १ ३. ४५ पर किओकुग विभाषा, १३३. १२ का उल्लेख करते हैं। नीचे दिये नियम के अनुसार : यतू पश्चातू संवर्तते तत पूर्व विवर्तते । ' सोऽसौ विवृत्तानो तिष्ठतां प्रथमोऽन्तरकल्पः।