पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४१३

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! तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश ४०५ [१६०] एक, न कि दो, प्रथम स्थान हैं, एक का दस गुना दूसरा स्थान है, १० x १० (या १००) तीसरा स्थान है, १०० x १० (या हजार) चौथा स्थान है ... एवमादि, प्रत्येक आस्या पूर्व की दस गुनी है : प्रभेद (१००००), लक्ष (१०००००) अतिलक्ष, कोटि, भव्य, • अयुत, महायुत, नयुत, महानयुत, प्रयुत, महाप्रयुत, कंकर, महाकंकर, विम्बर, महाविम्वर, अक्षोभ्य, महाक्षोम्य, विवाह, महाविवाह, उत्संग, महोत्संग, वाहन, महावाहन, टिटिभ, महा- टिटिभ, हेतु, महाहेतु, करभ, महाकरभ, इन्द्र, महेन्द्र, समाप्त (या समाप्तम्), महासमाप्त (समाप्तम्), गति, महागति, निम्बर-रजस्, महानिम्बराजस्, मुद्रा, महामुद्रा, वल, महावल, संज्ञा, महासंज्ञा, विभूत, महाविभूत, वलाक्ष, महाबलाक्ष, असंख्य इस सूची के ५ स्थान नष्ट हो गये हैं।' महान्युत्पत्ति में चार प्रकार की गणनायें बतायी हैं, २४६-२४९१, यह बुद्धावतंसक, प्रज्ञापार- मिताशास्त्र, स्कन्धव्यूह, ललित, अभिधर्म, से ली गई है। पश्चात लौकिक गणना (१ से १००) है। रेमूसा ने बुद्धावतंसक का उल्लेख किया है। इसको शिक्षा है कि "श्रेष्ठ पद्धति में संख्याओं को अपने से हो गुणा करते हैं": असंख्य से आरम्भ कर इस प्रकार १० स्थान की गणना होती है: असंख्य, असंख्य', असंख्य (मैं समझता हूँ कि तिब्बती भाषान्तर (कंजुर, ३६, पत्रा ३६) के अनुसार कोटि (१०००००००) से इसी प्रकार उत्तरो- त्तर वृद्धि करना चाहिये ः कोटि, कोटि कोटि, एवं यावत अनभिलाग्य-अनभिलाप्य- परिवर्त निर्देश जो इस सूची का १२२ वौ स्थान है)। “इन संख्याओं से निश्चय हो और अधिक अयुक्त क्या हो सकता है...? हम यह सोचने के लिये विवश हैं कि बौद्ध कभी-कभी या तो अनन्तकाल और अनन्त देश के ध्यान में अपनी कल्पना को आश्रय देने के लिये इन बड़ी बड़ी संख्याओं का उपयोग करते हैं या इस परिकल्प को प्रायः औदारिक चित्त देने के लिये उपयोग करते हैं जो चित्त इस कल्पना में समर्थ नहीं है। ( ) प्राह्मणों को भी बुहत संख्यायें हैं। ब्रह्मा, नारायण, रुद्र, ईश्वर, सदाशिय, शक्ति को आयु में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। शक्ति को आयु १०, ७८२, ४४९, ९७८, ७५८, १२३, ७८१, १२०+२७ शून्य कल्प है। यह आयु शिव की आयु के एक दिन को एक त्रुटिमा है। शिव को आयु कल्पों में ३७, २६४, १४७, १२६, ५८९, ४५८, १८७, ५५०, ७२०+३० शून्य है। इस पर अलावेनी (१.३६३) कहते हैं: “यदि यह स्वप्न देखने वाले गणित के अध्ययन में अधिक कृतश्रम होते तो वह ऐसी कलित संख्याओं का आविष्कार न करते। ईश्वर इसकी फिक रखता है कि वृक्ष स्वर्ग तक न बढ़ जावें।" अष्टकं मध्याद विस्मृतम् । व्याख्या : अष्टौ स्थानानि क्वापि प्रदेशे प्रमुषितत्वान्न पठितानि । तेना द्वापंचाशत् स्थानानि भवन्ति । षष्टया च संख्यास्थानर्भवितव्यम् । तान्यष्टकानि स्वयं कानिचिन् नामानि कृत्वा पठितव्यानि येन षष्टिः संस्यास्थानानि परिपूर्णानि भवेयुः।-विभाषा, १७०, ४० में यही बाद है। यशोमित्र के अनुसार १,१०, १००, १०००..... इस संख्या का ६० वा स्थान असंख्य है। ६० संख्या-स्थान की पूर्ति के लिये कोई नाम देकर आठ रिक्त स्थानों को भरना चाहिये। इन आठ संख्याओं का स्थान नियत नहीं है। महान्युत्पत्ति, २४९ के संस्कर्ता ने इस प्रकार नहीं समझा है। वह ५३-६० स्थान पर अप्रमाणम् अप्रमेयम... .अनभिलाप्यम् देते हैं। शरच्चन्द्रदास हमारी सूची को कोश, १-५२ से लिया बताते हैं : “इस संख्या तक संस्कृत शब्द पाये जाते हैं। ५३ से ६० तक संस्कृत नाम नहीं हैं। विनष्ट मूल शब्दों के त्यान में तिब्बती में नये लाम दिये गये हैं। इन नये नामों का (जिसका अनुवाद मैत्र, महामंत्र, कारुण, महाकारण,.. है) महाव्युत्पत्ति के ५३-६० से कोई सम्बन्ध नहीं है।