पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४१६

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अभिधर्मकोश 1 अपकर्ष होता है ? ---क्योंकि उस समय ५ कषाय (आयु कषाय, कल्पकषाय, क्लेशकषाय दृष्टि कषाय, सत्व कषाय) अभ्यधिक (अभ्युत्सद) होते हैं। अपकर्ष के अन्तिम काल में (अपकर्षस्य अधस्तात्) आयु की दृग्भूत, प्रत्यवर हो जाती है । कलुषित होने से उसे 'पाप' कहते हैं। इसी प्रकार अन्य कषायों को जानिये । [१९४] पहले दो कषाय यथाक्रम जीवित और उपकरण को विपन्न करते हैं (जीवित विपत्ति, उपकरण विपत्ति) । अनन्तर के दो कषायों से कुशलपक्ष की विपत्ति होती है । क्लेश कपाय कामसुखलीनता (कामसुखल्लिका) के अनुयोग से विपन्न करता है। दृष्टिकषाय आत्म- क्लमथ के अनुयोग से विपन्न करता है। अथवा गृहीपक्ष में क्लेशकषाय से और प्रबजितपक्ष में दृष्टिकपाय से कुशलपक्ष की विपत्ति होती है। सत्त्वकषाय से शारीरिक और मानसिक विपत्ति होती है : आकृति, शोभा, आरोग्य, वल, बुद्धि, स्मृति, वीर्य और प्रणिधि की विपत्ति होती है । किस काल में प्रत्येक बुद्धों का प्रादुर्भाव होता है ? ६४ सी . प्रत्येक बुद्ध दो काल में। वह आयु के उत्कर्ष काल और अपकर्ष-काल में होते हैं। वास्तव में प्रत्येक बुद्ध दो प्रकार के हैं : एक वर्गचारी हैं (जो उत्कर्ष काल में भी होते हैं), दूसरे खंग विषाण कल्प है। २ - । कषायों का क्रम अन्थ के अनुसार भिन्न है; महाय्युत्पत्ति, १२४ और न्यूमरिकल डिक्शनरी (फाइव हन्ड्रेड एकाउन्ट्स १.१७ रोचक है) : आयुः, दृष्टि, फ्लेश, सत्व, कल्प; धर्मसंग्रह, ९१, क्लेश, दृष्टि, सत्व, आयु, कल्प; बोधिसत्व-भूमि, १.१७, आयु, सत्य, क्लेश, दृष्टि, कल्प; करुणा पुण्डरीक, ३, आयु, कल्प, सत्व, दृष्टि, क्लेश; सद्धर्म पुण्डरीक, ४३, कल्प, सत्व, क्लेश, दृष्टि, आयु। [उस समय जो बुद्ध प्रादुर्भूत होते हैं यह तीन यानों को देशना करते हैं।]. तीन कषाय, कोश, ४.५९. कल्पकषाय पर, ३.९०, पृ.२०७, दि०। जव आयु १०० वर्ष की होती है तो पाँच कषाय उत्सद होते हैं किन्तु अभ्युत्सद नहीं होते जैसा कि होता है जब आयु वर्ष-शत से कम होती है। 'उपकरण' धान्यपुष्पफलौषधादीनि है। उनके रस, वीर्य, विपाक और प्रभाव का अल्प होना उनकी विसत्ति है अथवा फलादि का सर्वथा अभाव होता है । कोश, ४.८५ए, पृ. १८७ . द्वान्यां कुशलपक्षविपत्तिः कामसुखल्लिकात्मक्लमयानुयोगाधिकारात् ।-व्याल्या--- कामसुखल्लिका ॥कामसुखभेव कामसुखलीनता वा । कामतृष्णा वा या कामसुखेसज्यते। --आत्मक्लसथ = आत्मोपताप; आत्ममोडा--अनुयोग = अनुषेवण (दीघ, ३.११३). द्वयोः प्रत्येकबुद्धानाम् 'प्रत्येकबुद्धों का यह नाम इसलिए है क्योंकि फल-लाभ के पूर्व वह शिक्षा प्राप्त नहीं करते और क्योंकि फल-लाभ के पश्चात वह शिक्षा नहीं देते। वासिलीव २७६ :"वैभाषिकों के परिचित प्रकारों के आय में सौन्तिक दो प्रकार के प्रत्येक जोड़ते हैं।" वर्गनारिन्, महाव्युत्पत्ति,४५, नामसंगीति, ६.१० को टीका में। (मूल में केवल खड्ग प्रत्येक नायक का उल्लेख है)। खड्गविषाणकल्प : सुत्तनिपात, तृतीयसुत्त, विसुद्धिमग्ग, २३४ (महेसी) आदि; महावस्तु, १. ३५७ (उसका निर्वाण), शिक्षासमुच्चय, १९४ (खड्गसम), विध्य, २९४,५८२, भावक देखिये। 7 २ }