पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४१७

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश

[१६] ए. पहले श्रावकपूर्वी हैं [जो बुद्धशासन में स्रोतापत्तिफल या सकृदागामि श्रावक फल का लाभ करते हैं] !--एक दूसरे मत के अनुसार यह पृथग्जन भी होते हैं जिन्होंने श्रावकयान में निधभागीयों (६.२०) का साक्षात्कार किया है। यह चरमभव में स्वयं मार्ग का अधिगम करते हैं। इस पक्ष के वादी पूर्वकथा से एक युक्ति देते हैं। पूर्वकथा में पठित है : "५०० तापसों ने एक पर्वत पर कष्टतप किया। एक वानर ने जो प्रत्येक वुद्धों के साथ रह चुका था उनके सम्मुख प्रत्येक बुद्धी के ईर्यापथ का संदर्शन किया। यह तापस उस वानर का अनुकरण करते हैं। कहते हैं कि वह प्रत्येक बुद्ध की बोधि का लाभ करते हैं।" इन वादियों का कहना है कि वह स्पष्ट है कि यह तापस आर्य न थे, श्रावक न थे क्योंकि यदि उनकी शीलवतपरामर्श दृष्टि (५.पृ.१८) प्रहीण होती और वह किसी श्रावक-फल का लाभ किये होते तो वह कष्टतप न करते।' सी. 'खङ्गविषाणकल्प' प्रत्येकबुद्ध असंसृष्ट विहारी हैं। ६४ डी. खङ्गविषाणकल्प कल्पशत के कारण। [१६६] खङ्ग १०० महाकल्प तक बोधिसंभार के लिये [अर्थात् शील, समाधि और प्रज्ञा के लिये] प्रयोग करता है। वह श्रुत या आगम के विना अकेले बोधि का लाभ करता है (६.६७) । यह प्रत्येक बुद्ध है क्योंकि वह अपना मोक्ष स्वयं साधित करता है और दूसरों को धर्म की देशना नहीं देता। वह दूसरों की धर्म-देशना का प्रयत्न क्यों नहीं करता ? वह अवश्य ही धर्म-देशना में समर्थ है। वह प्रतिसंवित् प्राप्त है (७ . ३७ वी)। (यदि वह प्रतिसंदित् प्राप्त न हो) तो वह (अपने प्रणिधि-ज्ञान से, ७ . ३७ ए) पूर्वबुद्धों के अनुशासन का अनुसारण कर धर्म की देशना कर सकता है। वह करुणा शून्य नहीं है क्योंकि वह सरवों पर अनुग्रह करने के लिये ऋद्धि का अविष्कार कर सकता है। यह भी नहीं कह सकते कि जिस काल में वह अवस्थान करता है उस काल के 1 २ पूविन्, यया प्रेतपूर्विन आदि, अवदानशतक, १. २५९. वर्गचारिन् सद्धर्मकाल में स्रोतापतिफल या सकृदागामिफल उत्पादित करते हैं। पश्चात् बुद्धशासन के अन्तहित होने पर वह स्वयं अर्हत्व का अधिगम करते हैं। क्योंकि उन्होंने पूर्व-बुद्ध के उत्पाद काल में संवेग का अनुभव किया है वह पुनः संवेजनीय नहीं है। अतः वर्गचारिन् की उत्पत्ति उत्कर्ष में भी होती है। हम ६.२३० और पृ. १७५ में देखेंगे कि किस काल में योगी एक यान से दूसरे यान में जा सकता है। पूर्वकथा, यह चीनी नामके के आधार पर अनुमान है। परमार्य : (पूर्वपर्यासन)। विभाषा, ४६, १८, वालपंडित,अध्याय १३. और अशोकराजसूत्र का उल्लेख करते हैं। यह कथा वास्तव में दिव्य, ३४९ में वर्णित है। जैसा कि प्रिप्तिलुस्की लेजेंड अफ अगोक ३१० (जे. ए एस् १९१४, २, ५२०,) से पता चलता है, यह अशोकसूत्र से उद्धृत है। न चार्याः सन्तः कष्टानि तपांसि तप्येरन् । (खगः)कल्पशतान्वयः ।।----अन्वय - बोधि हेतु, अतः सङ्ग के लिए कल्पगत बोधि हेतु है।" व्याख्याः यथा खङ्गविषाणा अद्वितीया भवन्ति एवं ते गृहस्पप्रमजितरन्यश्च प्रत्येक बुद्धर- संसृष्टविहारिण इति खगविषाणकल्पा इत्युच्यन्ते। विभाषा, ३०, १३, एक समय में वो प्रत्येक नहीं होते। उद्धराविष्करणात्, यथा महावस्तु,३. २७. 3