पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अभिधर्मकोश सत्व अभव्य होते हैं। क्योंकि उस काल में--आयु के अपकर्ष-काल में-लौकिक वीतराग विद्यमान होते हैं। फिर धर्म-देशना के न करने में क्या हेतु है ? (असंसर्ग के) पूर्वाभ्यासवश उसकी रुचि अल्पोत्सुकता में होती है; और दूसरों को गम्भीर धर्म का ग्रहण कराने में उसको उत्साह नहीं होता (न उत्सहते)। इस व्यापार में उसको गण बनाना होगा और स्रोत का अनुसरण करने वाले समूह का प्रतिस्रोत परिकर्षण का प्रसंग होगा। यह उसके लिये दुष्कर है क्योंकि उसको समाधि में आक्षेप का भय है और यह संसर्ग-भीर है।' (६.७० ए.) चक्रवर्तिसमुत्पत्ति धोऽशोतिसहस्रकात्। सुवर्णरूप्यताम्रायश्चक्रिणस्तेऽधरक्रमात् ॥१५॥ एक द्वित्रिचतुर्तीपा न च द्वौ सह बुद्धवत् । प्रत्युद्यान स्वयंयान कलहास्त्रजितोऽवधाः॥९६॥ ६५-६६ . जब आयु ८०,००० वर्ष से कम की होती है तव चक्रवर्ती की उत्पत्ति नहीं होती। वह सुवर्ण-चक्री, रूप्यचक्री, ताम्रचक्री और अयश्चक्री होते हैं। अधरक्रम [१९२] से वह एक, दो, तीन, चार द्वीप का शासन करते हैं। वह दो एक साथ कभी नहीं होते जैसे दो बुद्ध एक साथ नहीं होते। वह प्रत्युद्यान, स्वयं-यान, कलह, असि से विजयी होते हैं किन्तु किसी का वध नहीं करते। १. जिस काल में मनुष्यों की आयु अनन्त होती है उस काल से लेकर उस काल तक जब आयु ८०,००० वर्ष की होती है, चक्रवतियों की उत्पत्ति होती है । उस समय उनकी उत्पत्ति नहीं होती जब आयु इससे अल्प होती है क्योंकि तब भाजनलोक उनकी कीर्ति और अम्युदय के अयुक्त नहीं होता। उन्हें चक्रवर्ती कहते हैं क्योंकि उनका स्वभाव राज्य करने का है।' ३ ५ १ नापि सत्वानामभव्यत्वात् यस्माद्धि लौकिकवीतरागास्तदानीं संविद्यन्ते--लोकोत्तरवीतराग की सम्भावना क्यों न होगी?--कोशस्थान ५-६ को भूमिका, ९ देखिये। धर्मदेशनाया अकरणे कस्तहि हेतुः? संघभद्र, ५८बी, ३ पहले अन्य हेतु देते हैं जो ही उनके मत से सुष्ट हैं। उनकी विशेषयुक्ति यह है : “खङ्ग वैशारध से समन्वागत नहीं होता। जो पुद्गल आत्मवाद में अभिनिविष्ट हैं उनको वह नराम्य को देशना देना चाहता है, किन्तु उसका चित्त भीर है।" चक्रवर्तिसमुत्पत्ति धोऽशीतिसहस्रकात् । सुवर्णरूप्यताम्रायश्चत्रिणस्तेऽधरक्रमात् एकद्वित्रिचतुर्तीपा न च ते सह बुद्धवत् । प्रत्य् [उद्यानस्वयंवानकलहास इजितोऽवधाः॥ पोथी का पाठ अस्पष्ट है, कलोयास्तिजितो, कदाचित् अस्त्रजितो? नीचे पृ. २०२, टि० १ देखिये। राज्यचक्रवर्तनशीला:??--- शुआन् चाङ : यह राजा वक्रप्रवर्तन से सब पर राज्य करते हैं। अतः चक्रवर्तिन कहलाते हैं। सुमंगल, १, २४९ में निर्वचन है। २