पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश

२. वह चार प्रकार के होते हैं : सुवर्णचक्रवर्तिन, रूप्यचक्रवर्तिन्, तानचक्रवर्तिन्, अयश्चक्रवर्तिन्, यथा उनका चक्र सुवर्ण, रूप्य, ताम्र या लोहे का होता है । प्रथम उत्तम है, दूसरा स्पोत्तम (?) है, लीसरा मध्य है, चौथा अधर है। जिस चक्रवर्ती का चक्र लोहे का होता है वह एक द्वीप पर राज्य करता है, जिसका चक्र ताम्र का है वह दो द्वीपों पर राज्य करता है। एवमादि। [१९८] यह प्रज्ञाप्ति का निर्देश है। वास्तव में अपने प्राधान्य के कारण सूत्र में केवल सुवर्ण चक्रवर्ती उक्त है । “जव राजवंश का कोई अभिपिक्त नृपति उपवास के दिन, पक्ष के १५ वें दिन अभिषेक कर और उपवास के व्रतों का समादान कर अपने मंत्रियों के साथ अपने राज- प्रासाद के अलन्द का आरोहण करता है, और पूर्व में उसके सहस्ररश्मियुक्त, नेमि समन्वागत, नाभिसमन्वागत, सर्व प्रकार से परिपूर्ण, मनोरम, अकर्मारकृत, सुवर्णमय चकरत्न प्रादुर्भूत होता है तो यह राजा चक्रवर्ती राजा होता है।" ३. दो चक्रवर्ती एक ही समय में उत्पन्न नहीं होते यथा दो वुद्ध नहीं उत्पन्न होते । सूत्र- वचन है कि "वर्तमान काल में, अनागत अव्व में, यह अस्थान है, यह अनवकाश है कि लोकमें दो तथागत-अहंत्-सम्यक् सम्वुद्ध युगपत् हों। एक पूर्व होता है, दूसरा पश्चात् होता है। यही नियम है कि एक समय में एक ही होता है । जो तयागतों का नियम है, वहीं चक्रवर्तियों का है।" फुकुए-कि, १३४--दीर्घ में केवल सुवर्ण चक्रवर्ती का उल्लेख है किन्तु किउ-शे-लन् (= कोश) में चार प्रकार हैं :१. अयश्चक्रः जम्बुद्वीप, २००००वर्य की आयुः २. ताम्रचक्र जम्वु और विवेह, ४००००, ३. रूप्यचक्र जम्बु, विदेह, गोदानीय, ६००००, ४. सुवर्णचक्रः चार द्वीप, ८००००। जिस काल में चक्रवतियों की उत्पत्ति होती है उस काल पर दीर्घ ३, १७, १८, १९, संयुक्त, २७, १२, नजिओ, ४३२. सुवर्णचक्रवतिन्, लाइफ अव शुआन चाङ, ७०, चतुर्भागचक्रवतिन, दिव्य, ३६८ के नीचे (चीनी संस्करण का अर्थ : एक द्वीप का राजा, पिजिलुस्की अशोक) चतुर्तीपेश्वर, शिक्षा-समुच्चय, १७५-पीछे के पालिग्रन्थों में, चवालयकत्तिन, चातुरन्त, दोप,पदेस-, चक्कवत्तिन् ( रोज डेविड्स ) । चक्रवतिन् पर टिप्पणियां, कोश, २. पृ० २२० ४.७७वी-सी, ७.५३सी, बोधिसत्वभूमि, पना १२५वी-१२६ए ) चातुर्दीपक, जम्बुद्वीपेश्वर) मैत्रेयसमिति, ८६, २३७, २४६, जहाँ लायमन एक 'विद्वीप (दो द्वीपों का चक्रवती) की कल्पना करते हैं = 'दिदीप' या 'दुवीप' दिलीप (बाह्मण ग्रंथों का) और दुजीप, जातक, • ५४३, १२९, का हो सकता है। एष प्राप्तिकः-यह प्रशाप्ति शास्त्र का निर्देश है कि चार प्रकार के चक्रवर्तिन है। कारण प्रज्ञाप्ति, अध्याय २ देखिये (इसका विवरण बुदिष्ट पास्मालोजी, ३२९ में है) अभिधर्म लिटरेचर तकाकुसु, ११७) = अकर्मारकृत, जैसा ललित, १४ में पा० है)- शुआन-चार और परमार्यः "मानों कुशल कर्मकारों से कृत" १--(किन्तु फू-कए-कि, १३३: स्वर्गलोक के कर्मचारी को कृति) ( लायनत, मैत्रेयसमिति, ८६ )। दीर्घ, १८, १९, संयुक्त, २७, ११, एकोत्तर, ३३, १०, विभाषा, ६०, ९इस बचन का पालि संस्करण दोघ, २.१७२ में हैं। यस रसो सत्तिपस्स...... --कारणप्रज्ञाप्ति, अध्याय २ में उबृत। इसका विवरण कस्मालोजी, ३२८ में है। मध्यम, १८, १६, १७, १९, धर्मस्कन्य, ९, १४, अंगुतर १.२७, वीघ, ३.११४, मग्निम, १ 1 ४