पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४२०

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अभिधर्मकोश ४१२ 1 यहाँ एक प्रश्न है । 'लोक में इस पद का क्या अर्थ है ? क्या इसका अर्थ "त्रिसाहस्र- महासाहस्र लोकधातु में (३.७४)" है ? क्या इसका अर्थ "सर्वलोकधातु में" है ?५ [१६६] एक मत के अनुसार बुद्ध अन्यत्र (अर्थात् दो महालोकधातु में युगपत्) ' नहीं होते। इसलिए कि दो वुद्धों का युगपत् भाव भगवत् के प्रभाव में अन्तराय होगा। एक भगवत् सर्वत्र प्रयुक्त होते हैं । जहाँ एक भगवत् सत्वों को विनीत करने में प्रयुक्त नहीं है वहाँ अन्य भगवत् प्रयुक्त नहीं होते । पुनः सूत्र में पठित है : “शारिपुत्र, यदि कोई तुमसे प्रश्न करे कि क्या इस समय कोई भिक्षु या ब्राह्मण ऐसा है जो सम्यक् संबोधि के विषय में श्रमण गौतम का समसम है तो तुम क्या उत्तर दोगे?- हे भदन्त ! यदि मुझसे कोई यह प्रश्न पूछे तो मैं कहूंगा कि इस समय कोई आश्रय, भिक्षु या ब्राह्मण नहीं है जो भगवत् का समसम हो। और मैं ऐसा उत्तर क्यों दूंगा? क्योंकि मैंने भगवत् सुना है और उनसे प्रतिगृहीत किया है (श्रुतं सम्मुखात् प्रतिगृ- हीतम्) कि यह असम्भव है कि वर्तमान-काल में और अनागत अध्व में लोक में दो भगवत्- अर्हत्-सम्यक् संबुद्ध युगपत् हों और उनमें से एक पूर्व और दूसरा पश्चात् न हो।" दोष-फिर भगवत् जो ब्रह्मसूत्र में कहते हैं उसका कैसे अर्थ करना चाहिये : “मैं अपना ऐश्वर्य (?) यावत् त्रिसाहस्रमहासाहस्रलोकधातु में प्रयुक्त करता हूँ ?"-इस वचन का अक्षरार्थ नहीं लेना चाहिये । [२००] बुद्ध बिना अभिसंस्कार के ( = अनभिसंस्कारेण = अना- भोगेन) इस पर्यन्त तक लोकधातु का दर्शन करते हैं। जब उनकी इच्छा होती है तब उनका दर्शन सर्वत्र अपर्यन्त होता है। .. ५ ३.६५, मिलिन्द, २३६. अस्थानमनवकाशो यदपूर्वाचरमौ द्वौ तथागतो... लोक उत्पद्ययाताम्-व्याख्या अस्थानम् : वर्तमानकालापेक्षया अनवकाशः अनागतकालापेक्षया। पालि संस्करण: एफिस्सा लोकधातुया वे अरहन्तो.. अपुटबम् अचरिमम् उप्पज्जयुम्- शुआनधार भिन्न अर्थ करते हैं : "वहाँ केवल एक होता है" इसका पया अर्थ है ? क्या एक त्रिसाहस्रमहासाहस्रलोकधातु अभिप्रेत है ? कि.फुग की टिप्पणी-सर्वास्तिवादियों का कहना है कि दस दिशाओं के लोकधातुओं में एक हो बुद्ध का उत्पाद होता है। सौत्रान्तिक और महायानिक कहते हैं कि दस दिशाओं के लोकधातुओं में अनेक बुद्धों का प्रादुर्भाव होता है। कथावत्थु, २१, ६, वसुमित्र के ग्रन्थ आदि देखिये (महासांधिक, लोकोत्तरवादिन्) संघभव, ५८ वी सूत्र में कोई विशेष व्यवस्थापित नहीं है। कोई सूत्र नहीं कहता कि केवल इस लोक में', 'केवल एक लोकधातु में।" यह कैसे व्यवस्थापित होता है कि सूत्र का अभिप्राय केवल एक निसाहनमहासाहल से है, सर्वलोकधातु से नहीं है? पुनः सूत्र (अमराजसूत्र) कहता है कि "क्या कोई भिक्षु गौतम का समसम्म है... समसम इति वीसा । अथवा समैः सर्वसत्वेषु बुद्धभंगवद्भिः सम इति-युद्धों के वरावर जो सब सत्वों के लिये समान हैं। दीर्च, १२, २२, बोध, ३.११३। तिब्बती = ब्रह्मसूत्र परमार्थ और शुआन-चाइन ब्रह्मराजसूत्र ( = मध्यम, १९, ४)--यह वाक्य सुगमता के साथ ब्रह्मनिमन्तणिक में स्थान पा सकता था, मज्झिम, १.३२९ । कोश, ६. ५५ ए वैखिये।---विभाषा, १५०, ११--इसी प्रकार भगवत् को 'प्रकृत्या ९१ -