पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४२१

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश अन्य निकायों के अनुसार बुद्ध युगपत् होते हैं किन्तु एकत्र नहीं होते, भिन्न लोकधातुओं में होते हैं। उनकी युक्तियाँ यह हैं । हम देखते है कि बहु-आश्रय एक ही काल में [बोधि के संभार के लिये यत्नशील होते हैं। अवश्य ही एक काल में एकत्र (= एक ही लोकधातु में) कई बुद्धों का उत्पाद उपयुक्त नहीं है किन्तु दूसरी ओर कई वुद्धोंके युगपत् उत्पाद में कोई वाधा भी नहीं है। अतः वह भिन्न लोकधातुओं में उत्पन्न होते हैं। लोकधातु अनन्त हैं। यदि भगवत् एक समग्र कल्पपर्यन्त जीवित रहें तो भी वह अनन्त लोकधातुओं में विचर नहीं सकते जैसे यहाँ विचरते हैं। अतः यदि उनकी पुरुषायुष्य हो (पुरुपायुष्यं विहर) तो और भी असम्भव है । प्रश्न होगा कि भगवत् का यह कार्य क्या है ? वह देखते हैं कि उस पुद्गलकी वह इन्द्रिय जो उत्पन्न नहीं है और जो सकल नहीं है (श्रद्धादि) -उस पुद्गल वश उस स्थान में और उन उन काला- वस्थाओं में, उस दोप के अन्तर्हित होने से और उस प्रत्यय (अंग = प्रत्यय) के सम्मुखीभाव से, उस योग से (तेन योगेन) उत्पन्न हो और सकल हो। दोप---किन्तु हमने वह सूत्र उद्धृत किया है : "लोक में दो तथागतों का उत्पाद विना एक के पूर्व और एक के पश्चात् हुए, असम्भव है ।" परिहार- यह विचार करने का स्थान है कि इस वचन का अभिप्राय एक लोकधातु से, चातुर्दीपक त्रिसाहस्र-महासाहस्रलोकधातु से है अथवा सर्वलोकघातु से है। हमारा कहना है कि चक्रवतियों के उत्पाद का नियम भी उन्हीं शब्दो में दिया गया है जिन शब्दों में तथागतों के उत्पाद का नियम है । क्या कोई इसका [२०१] प्रतिषेध करेगा कि चक्रवतियों का युगपत् उत्पाद हो सकता है ? यदि आप इसका प्रतिपेध नहीं करते तो यह भी क्यों नहीं स्वीकार करते कि बुद्ध जो पुण्य के मूलाधार हैं भिन्न लोकधातुओं में युगपत् उत्पन्न होते हैं इसमें क्या दोप है कि अप्रमेय वुद्धों का अत्रमेय लोक-धातुओं में उत्पाद हो? और इस प्रकार असंख्य जन अभ्युदय और नैःश्रेयस का लाभ करेंगे। दोप-किन्तु यह कहा जायगा कि इस तरह आपको मानना होगा कि दो तथागतों का युगपत् उत्पाद एक लोक धातु में हो सकता है। उत्तर--नहीं। वस्तुतः १. एक ही लोकधातु में उनका सहोत्पाद निष्प्रयोजनीय होगा: २.वोधिसत्व का प्रणिधान यह है कि "मैं वुद्ध होऊँ मैं अपरिणायक अन्व लोक का एक परिणायक होऊँ, अरक्षितों का रक्षक होऊँ"; ३. एक वुद्ध के प्रति गौरव अधिक होता सद्धर्म का अनुसरण करने के लिये अधिक त्वरा और उद्योग होता है : पुद्गल जानते हैं कि कृत्स्न जगत में ४. कल्प की स्मृति होती है (४. पृ. २२५)।-भगवत् के 'खेत' अय के व्याख्यान-विसुद्धि, ४१४ : जातिक्खेत, १०००० चक्कवाल जिनको कम्पन उनके उत्पाद पर होता है। आण खेत : एक कोटि और १००००० चक्कवाल जहाँ उनके परित्तों (रक्षा के वाक्य) का शासन है। विसयस्खेत्त : अनन्त क्षेत्र जो उनके ज्ञान का गोचरं है। । निकायान्तरीया इति महासांघिकप्रभृतयः परमार्य बहुवाद के व्याख्यान को यहीं समाप्त करते हैं। संघभद्र इस युक्ति का प्रतिषेध करते हैं। चक्रवतियों के साथ तुलना करने से सिद्ध नहीं होता। उनका प्रभाव चार द्वीपों में सीमित है। बुद्धों के विनीत करने का सामर्थ्य अनन्त है क्योंकि सर्वलोकधातु उनके ज्ञान का गोचर है।