पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४२३

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश ४१५ अयश्चक्री उनके समीप जाता है। वह शस्त्र उठाते हैं (शस्त्राण्यावहन्ति = उत्क्षिपन्ति) । तब वह वशवर्ती होते हैं। किसी अवस्था में चक्रवर्ती वेध नहीं करते। [२०३] ५. चक्रवर्ती सत्वों को १० कुशल कर्मपयोंमें प्रवेश कराते है (४.६६ वी)। मृत्यु के पश्चात् वह देवों में पुनरुपपन्न होते हैं। ६. सूत्रवचन है : “जब लोक में चक्रवर्तियों का उत्पाद होता है तव सप्तरत्न भी उत्पन्न होते हैं : चक्ररल, गजरत्न, अश्वरत्न, कोपरत्न, स्त्रीरत्न, गृहपतिरत्न, परिणायक-रत्न।" क्या यह मानना चाहिये कि इन रत्नों में से जो सत्व है, यथा गजरत्न आदि, वह दूसरे के कर्म से उत्पन्न होते हैं?—नहीं। एक सत्व ऐसे कर्म उपचित करता है जिसका विपाक चक्रवर्ती से सम्बद्ध जन्म है, जिसका विपाक गजरत्नादि भाव है। चक्रवर्ती के उत्पन्न होने पर उसके निज के कर्म इस सत्व को उत्पादित करते हैं। ७: चक्रवर्ती और अन्य पुद्गलों में और भी भेद हैं। विशेष कर यह भेद है कि बुद्ध के समान इनमें भी महापुरुषों के ३२ लक्षण होते हैं। किन्तु बुद्ध के लक्षण इसमें अधिक हैं कि वह देशस्थतर, उत्तमतर और सम्पूर्णतर होते हैं। क्या प्राथमकल्पिक पुद्गलों में राजा होते थे ? नहीं। आलस्यात् सन्निधिं कृत्वा साग्रहैः क्षेत्रपो भृतः। ततः कर्मपयाधिक्यादपहासे दशायुषः॥९८॥ ६८. आरम्भ में सत्व रूपावचर देवों के सदृश थे। पश्चात् शनैः शनैः रसरागवश [२०४] और आलस्यवश उन्होंने संग्रह किया और अपना अपना भाग लिया और एक क्षेत्रप को उसकी भृति दी। आवहन्ति = उत्क्षिपन्ति। दीघ, २,१७३, शिक्षासमुच्चय, १७५। मध्यम, ११, १, एकोत्तर, ३३, ११, संयुक्त, २७, १२–मझिम, ३, १७२, संयुत्त, ५९९; दीघ, ३.५९ से तुलना कीजिये। ललित, १४-१८, महावस्तु, १.१०८-दोघ, २. १७२, मज्झिम, ३. १७२, महाबोधिवंस, ६६ (लायमन के अनुसार, मैत्रेयसमिति, ८६) व्याख्या : गृहपतिरत्नं कोशाध्यक्षजातीयः। परिणायकरत्नं वलाध्यक्षजातीय :- गृहपति के दिव्य चक्ष होता है,७. पृ. १२२ विभाषा, १७७ में लक्षण (६.१०८, ११० ए) परिगणित हैं। पार्श्व इसकी समीक्षा करत हैं कि लक्षणों की संख्या ३२ क्यों है, कम या अधिक क्यों नहीं है। रोजडेविड्स-स्टीड में एक अच्छी पालि पुस्तक-सची दी है। देशस्थतर-परमार्थ का अनुवाद "दाहिने ओर अधिक"। यह टीका करते हैं : "जो झुका नहीं है।" व्याख्या का पाठ पढ़ा नहीं जाता : देशस्थतराणोति । अत्रस्थानानि (?)। प्रागसन् रूपिवत् सत्त्वा रसरागात् ततः शनैः । आलस्यात संग्रहं कृत्वा भागाद (): क्षेत्रपो भृतः [व्याख्या को विवृत्ति के अनुसार संग्रह : सन्निधिकार : संग्रहः -तिब्बती भाषान्तर क काठमांडू को पोथियों के पाठ निश्चित नहीं हैं : रसरागात् तज्जः शनैः। आलस्यन्वानवड. २ Y अनुसार "भागावरी