पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४२५

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- - तृतीय कोशस्थान लोक निर्देश ४१७ वनलता का प्रादुर्भाव हुआ और सत्व उसमें अनुरक्त हुए । लता अन्तहित हुई और तब आकृष्ट, अनुप्तशालि उत्पन्न हुआ। यह शालि औदरिक आहार था। इससे मूत्र-पुरीप हुमा । अतः सत्वों के पायु और उपस्थ, पुरुपेन्द्रिय और स्त्रीन्द्रिय उत्पन्न हुए तथा उनकी भिन्न आकृतियाँ हुईं। भिन्न व्यंजन के सत्व अपने पूर्व अभ्यासक्श ग्राहभूत अयोनिशोमनसिकार से ग्रसित हुए (अयोनिशो- मनसिकारग्राहग्रासगत)। उनमें कामसुख की तीव्र इच्छा उत्पन्न हुई और उन्होंने मैथुन कर्म किया। इस क्षण' से कामावचर सत्व कामग्रह से आविष्ट हुए। प्रातराश के लिये प्रातः शालि काटते थे, अपराह्न भोजन के लिए सायं काटते थे। आलसी स्वभाव के एक सत्व ने संग्रह किया। दूसरों ने उसका अनुकरण किया। संग्रह से 'आत्मीय बुद्धि उत्पन्न हुई, स्वामित्व की बुद्धि उत्पन्न हुई। बार बार काटे जाने पर शालि की वृद्धि रुक गई। तब उन्होंने क्षेत्रों को वाँटा। एक क्षेत्र पर एक का स्वामित्व हुआ। किसी ने दूसरे के अर्थ को छीन लिया। यह स्तेय का आरम्भ है। [२०६] स्तेय को रोकने के लिये वह सन्निपतित हुये और एक मनुष्य विशेष को क्षेत्रों की रक्षा के लिये छठा भाग दिया। इस मनुष्य को क्षेत्रप का नाम दिया और क्योंकि वह क्षेत्रप था इसलिए उसकी क्षत्रिय की आख्या हुई। क्योंकि वह महाजन- सम्मत था,क्योंकि वह अपनी प्रजा का रजन करता था,वह महासम्मत राजा हो गया। राजवंश का इसी प्रकार आरम्भ होता है।' जिन्होंने गृहपति के जीवन का परित्याग किया उन्होंने ब्राह्मण की संज्ञा पाई। पश्चात् किसी राजा के शासन में बहुत चोर और डाकू थे। राजा ने उनको शस्त्र से दण्डित किया। दूसरों ने कहा : "हमने यह कर्म नहीं किये हैं।" इस प्रकार मृपावाद का आरम्भ हुआ। १८ सी-डी. पश्चात् कर्म-पय की अधिकता से आयु का अपल्लास हुआ, यहाँ तक कि १० वर्ष की आयु हो गई। इस क्षण से प्राणातिपात आदि अकुशल कर्म-पय का आधिक्य हुआ और मनुष्यों की आयु उत्तरोत्तर अल्प होती गई। अन्त में यह १० वर्ष की हो गई। अत्यसालिनी, ३९२. महासम्मल की जो सन्तान चक्रवर्ती हुई उसकी सूची लोकप्रताप्ति में, एक सूची अभिधर्म के अनुसार हैं और एक विनय के अनुसार है, कास्मालाजो, ३२०, ३२२) : महाव्युत्पत्ति, १८० शाबान फाइव हन्ड्रेड एकाउंट्स १.३२४,३३० महावस्तु, १.३४८; जातक, ३.४५४; सुमंगल, १.२५८ जे आर ए एस १९१४, ४१४गाइगर. द ट्रान्सलेशन मॉन् महावंस का परिशिष्ट ततः कर्मपयाधिक्यादपहासे दशायुधः।। हुइ-हएइ फहते हैं : "इस शास्त्र में इसका व्याख्यान नहीं है कि कितने वर्षों के अनन्तर आयु का अपकर्ष या उत्कर्ष एक २ वर्ष करके होता है। माम्नाय यह है कि हर काल में एक एक वर्ष कर के आयु का ह्रास या वृद्धि होती है। रेमूसा, मेलांग पोस्युन १०३ में इसका व्याख्यान है किन्तु उनकी गणना मुझे मशुद्ध प्रतीत होती है : १६८००००० के स्थान में १६७९८००० पढ़िये । महायान अपकर्प के इस पाद को स्वीकार नहीं करता किन्तु उसका विचार है कि उत्कर्ष काल में पुत्र की आयु पिता की मायु से द्विगुण होती है।"-चावत्तिसोहना मैं (दोध, ३.६८) ८०००० वर्ष के पुदगलों के पुत्रों की आयु ४०००० वर्ष की होती है। इनके पुत्रों को आयु २०००० वर्ष की; पश्चात् १००००, ५०००, २५०० या २०००, १०००, ५००, २५० या २००, १००, १० वर्ष-कास्मालोजी . ! २ २७