पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४२६

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४१८ अभिधर्मकोश अतः दो धर्म, रसराग और आलस्य, इस दीर्घकालीन ह्रास के कारण हैं। [२०७] अन्तरकल्प का निर्याण (= परिसमाप्ति) होता है जब आयु दस वर्ष की होती है। तब क्या होता है ? कल्पस्य शस्त्ररोगाभ्यां दुर्भिक्षेण च निर्गमः । दिवसान् सप्तमासांश्च वर्षाणि च यथाकमान् ॥१९॥ ६६. शस्त्र, रोग और दुभिक्ष से जो यथाक्रम सात दिन और सात मास और सात वर्ष अवस्थान करते हैं कल्प का निर्माण होता है।' कल्प के अन्त में तीन ईतियाँ होती हैं। १. कल्पनिर्याणकाल में जब कि आय दस वर्ष की हो जाती है पुद्गल अधर्मरागरक्त, विषमलोभाभिभूत और मिथ्याधर्मपरीत हो जाते हैं। उनमें व्यापाद उत्पन्न होता है। उस समय से वह एक दूसरे को उसी तरह देखते हैं जैसे एक व्याध मृग्य को देखता है (मग्गसञ्जा)। उनमें द्वेष का भाव उत्पन्न होता है । जो कुछ उनके हाथ में आता है, चाहे वह काण्ठ-खण्ड हो, या विप का पौधा, उसे वह तीक्ष्ण शस्त्र की तरह प्रयुक्त करते हैं और एक दूसरे की हिंसा करते हैं। २. कल्पनिर्याणकाल में जव कि आयु १० वर्ष की हो जाती है पुद्गल अधर्मरागरक्त [२०८] विषमलोभाभिभूत और मिथ्या धर्मपरीत होते हैं। इन दोषों के कारण अमनुष्य (पिशाचादि) ईतियाँ उत्सृष्ट करते हैं। इनसे असाध्य व्याधि प्रादुर्भूत होती हैं जिनसे मनुष्यों की मृत्यु होती है। ३. कल्पनिर्याणकाल में ..... देव नहीं बरसता। इससे तीन दुर्भिक्ष, चंचु, श्वेतास्थि, शलाकावृत्ति होते हैं। चंचु कोष का दुर्भिक्ष है, श्वेतास्थि श्वेतास्थियों का दुभिक्ष है, शलाका वृत्ति वह दुर्भिक्ष है जिसमें जीवन-यापन शलाका पर होता है।' कल्पस्य शस्त्ररोगाभ्यां भिक्षेण च निर्गमः । दिवसान् सप्तमासांश्च वर्षाणि च यथाक्रमम् ॥ वसुबन्धु विभाषा, १३४, ३ का अनुसरण करते हैं। न्यूमरल डिक्शनरी और उसकी टीका से जो व्याख्यान मिलते हैं उनके अनुसार (फाइव हन्ड्रेड एकाउंट्स १.१६) कहते हैं कि जब आयु ३० वर्ष की होती है तब दुर्भिक्ष होता है, जब आयु २० वर्ष की होती है तब रोग होता है, जब १० वर्ष की होती है तब शस्त्रघात होता है । यह कल्प कषाय है। ध्याख्या : कल्प के तीन निर्याण हैं । शस्त्र, रोग, दुर्भिक्ष। क्या कल्प के अन्त में जब आयु १० वर्ष की होती है (दशवर्षायुः कल्प) यह तीन निर्याण क्रम से होते हैं ? अथवा एक एक कल्प के अन्त में क्रम से एक एक निर्याण होता है ? वादियों में मतभेद है। हमको द्वितीय पक्ष इष्ट है [यह नजिओ, १२९७ का मत है । किओकुग ने इसका उल्लेख किया है] अंगुतर, १.१५९--"मैंने पूर्व ब्राह्मणों का कहा हुआ सुना है ....कि लोक को जनसंख्या बहुत बढ़ गई थी, जैसे अवीचि(?)की। अब ऐसा क्यों है कि मनुष्यों का विनाश और ह्रास होता है ? ग्राम उजाड़ क्यों हो जाते हैं ....? हे ब्राह्मण ! आजकल के पुद्गल अधम्म- रागस्त, विसमलोभाभिभूत, मिच्छाधम्मपरेत हैं। वह तीक्ष्ण शस्त्र लेकर एक दूसरे का वध करते हैं.. ....। वर्षा नहीं होती, दुर्भिक्ष पड़ता है। .... मिच्छाधष्मपरतानं [मनु- स्सानं] यक्खा वा अमनुस्से ओसज्जन्ति ..... 'वा' की सम्भावना नहीं है। एक दूसरा पाठ 'वाले है)"।-दीघ, ३.७० चक्कवत्तिसोहनाद में यह अन्तिम भावविद्या की कल्पना की कोटि में आता है। (दुर्भिक्ष और रोग का उल्लेख नहीं है। केवल 'सत्यन्तर कप्प' है)। । पालिग्नन्थ-अंगुत्तर, १.१६० दुन्भिक्खं होति दुस्सस्स सेतटिठक सलाकयुत्तं तेन बहु मनुस्सा कालं करोन्ति ।- संयुत्त, ५. ३२३ : भगवत् महाभिक्षु संघ के साथ एक देश में 3 २