पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४२७

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४१९ तृतीय कोशस्थान : लोक निर्देश कोप का दुर्भिक्ष दो कारणों से होता है जो आजकल 'समुद्गक' है, वह उस काल में 'चंच' कहलाता है और चंचु तथा चंच एक ही वस्तु हैं। बुभुक्षा और दुर्वलता [२०६] से अभिभूत पुद्गल संग्रह कर के मर जाते हैं और अनागत सत्वों के उपयोग के लिये चंचुओं में बीज रखते हैं। इसीलिये इस दुर्भिक्ष को चंचु कहते हैं। श्वेतास्थि दुर्भिक्ष दो कारणों से होता है। काय शुष्क और कठिन होता है । अतः पुद्गल मृतप्राय होता है, अस्थियाँ श्वेत हो जाती हैं। लोग इन श्वेत अस्थियों को एकत्र करते हैं और उनका क्वाथ कर के पीते हैं। शलाका वृत्ति दुर्भिक्ष दो कारणों से होता है--गृह के प्राणी शलाका को सूचना के अनुसार भोजन करते हैं : "आज गृहपति की बारी है, कल गृहपत्नी की वारी है ...।" और इन शलाकाओं से बिलों से धान्य निकालते हैं। बहुत से जल उसका क्वाथ करते हैं और उसे पोते हैं।' प्रवचन की देशना है कि जिन पुद्गलों ने एक महोरात्र के लिये प्राणातिपात-विरति का समावान लिया है या एक आमलक फल अथवा आहार का एक कबड़ संघ को दान में दिया है वह शस्त्र, रोग, दुर्भिक्ष काल में इहलोक में उत्पन्न नहीं होंगे। ४. इन तीन कालों की अवधि क्या है ? ---प्राणातिपात की सात दिन की अवधि है, रोग की अवधि ७ मास और ७ दिन है, दुर्भिक्ष की अवधि ७ वर्ष, ७ मास और ७ दिन है। कारिका का 'च' शब्द सूचित करता है कि इन तीन अवधियों को जोड़ना चाहिये। चारिका करते हैं जब वहाँ दुर्भिक्ष होता है। दुन्भिक्खे द्वीहितिके सेलठ्ठिके सलाका वुत्ते--- सुत्तविभंग (विनय, ओल्डेनवर्ग ३.६, १५, ८७) : ऐसे देश में दुभिक्खा होति द्वीहिलिका सेतट्टिका सलाकावृत्ता न सुकरा उच्छेन पगहन यापेतुम्; समन्तपासादिका, १.१७५ (जहाँ बुद्धघोस के काई निर्देश हैं। कुछ वसुबन्धु के व्याख्यान से सहमत हैं) । बुद्ध घोस एक दूसरा पाठ देते है--सेतट्टिका । यह शालि का एक रोग है । अंगुत्तर ४:२६९ में यह पठित है : स्त्रियाँ संघ के लिये रोग होंगी जैसे ईख का रोग मंजेटिका' (मंजिला से) है, जैसे 'सेतदिटका' (एक प्रकार का पाला) शालि का रोग है।- रोज डेविड्स स्टोड में 'नीहितिक, दुहितिक' का विचार किया गया है (संयुत्त, ४. १९५) तिब्बती : (आज और कल : आजकल) (समुद्गाक) (चंचु)--परमार्य और शुआन्-चङ समुद्गल (क) का अनुवाद देते हैं : संग्रह करना, सन्निपतित करना-- शुआन चाङ का अनुवाद स्वच्छन्द है। परमार्थ में अक्षरार्थ मालूम पड़ता है। आजकाल इस काल में, इसे 'चन्' ( जूलिएँ १८१०)-- च जूलिए) १८०१) कहते हैं। पुनः लिएन चे (गन्धी की दूकान, कुवायर, १९०४, पी. १९७) 'चन्च' कहल ता है। मिहाव्युत्पत्ति, २३३ (वरतनों की सूची में ए: ६. समुद्ग, २५ चंच है ( ब्-त्से (चंच का अर्थ कोश में "ऋद्धि प्रयोग के लिये चित्र" दिया है । शरच्चन्द्रदास (देस्गोदि-स,आदि । वो दिव्यावदान,१३१ (मेंढक का अवदान, दुल्व ३, सोपधि वर्ग से उद्धृत, लेवी एलीमेंट्.: अदफर्मेशन अंद दिध्य, तुङ-प.ओ १९०७, ११ हि०) द्वादशवपिका अनावृष्टिाकृता। त्रिविषं दुभिक्षं भविष्यति चंचु श्वेतास्थि शल कावृत्ति च । तत्र चंचु उच्यते समुद्गके। तस्मिन् मनुष्या बीजानि प्रक्षिप्य अनागतसत्वापेक्षया स्थापयन्ति मृतानामनेन ते बीजका [२] ये करिष्यन्ति । इदं समुद्गकं वध्वा चंचु उच्यते.. यह दूसरा व्याख्यान दिव्य के व्याख्यान के कुछ समीप है । २ दिव्य : विलेभ्यो धान्यगुडकानि शलाकयाकृष्य बहूदकस्यात्यां क्वायपित्वा पिबन्ति । २