पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४३०

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४२२ अभिधर्मकोश तन्तु में पट का कृत्स्नवृत्ति से सद्भाव है किन्तु उसकी उपलब्धि एक एक तन्तु में इसलिए नहीं होती क्योंकि पट की उपलब्धि इन्द्रिय और पट के ऐसे संयोग की अपेक्षा करती है जिसमें पट के अनेक आश्रयों का ग्रहण हो। इस पक्ष में दशामात्र के गृह्यमाण होने पर पट की उपलब्धि होनी चाहिए।-आप कहेंगे कि यदि दशामात्र के गृह्यमाण होने से पटो- पलब्धि नहीं होती तो इसका कारण यह है कि उस समय पट के मध्यभाग आदि का इन्द्रिय से संप्रयोग नहीं होता। इसका यह अर्थ है कि पट का दर्शन कभी नहीं होगा क्योंकि मध्य और परभाग जो पट के आरम्भक हैं, उन सब का इन्द्रिय से एक साथ सान्निकर्ष नहीं होता।- आप कहेंगे कि उनका क्रम-संनिकर्ष होता है। यह इस कहने के बराबर है कि 'सर्व' (पट' द्रव्य) (अवयविन्) की उपलब्धि नहीं होती। इसका यह अर्थ है कि पट-बुद्धि या कट-बुद्धि पट या कट के अवयवों में ही होती है। अलातचक्रवत्,' यथा अलात के शीघ्र संचार से चक्रबुद्धि होती है। -पुनः पट तन्तु से द्रव्यान्तर नहीं हो सकता क्योंकि द्रव्यान्तर होने के विकल्प में जब तन्तु रूप, जाति और क्रिया में भिन्न होते हैं तब पट का रूपादि असम्भव होगा। यदि आप कहें कि इसका चित्ररूप है तो इसका यह अर्थ होगा कि विजातीय विजातीय [२१३] आरम्भक होता है। पुनः इस कल्पना में कि पाश्र्वान्तर अविचित्र है, उसके ग्रहण से पट का दर्शन होगा। अथवा चित्र रूप का दर्शन होगा किन्तु क्या आपको यह कहने का साहस है.कि भिन्न क्रिया के तन्तुओं से निर्मित पट की भिन्न क्रिया होती है ? एक द्रव्य की विचित्र क्रिया हो यह अविचित्र है।' पुनः अग्निप्रभात्मक अवयविन् का सम्भधारण कीजिये : आदि मध्य और अन्त में इसके ताप और प्रकाश में भेद होता है, इसके रूप और स्पर्श की उपपत्ति नहीं हो सकती।' (वैशेषिक–किन्तु यदि अवयवी पट अवयवों से व्यतिरिक्त नहीं है, यदि अतीन्द्रिय परमाणु एक ऐन्द्रियक औदारिक काय के परमाणुओं से अर्थान्तर के आरम्भक नहीं हैं तो कृत्स्त जगत् अप्रत्यक्ष होगा किन्तु गो आदि को हम प्रत्यक्ष देखते हैं।) बौद्ध—हमारे मत से अतीन्द्रिय परमाणुओं का समस्त होने पर प्रत्यक्ष होता है : यथा आप वैशेषिक समस्त परमाणुओं का ही कार्यारम्भकत्व मानते हैं, यथा चक्षुर्विज्ञान के उत्पाद में चक्षुरादि समस्त का कारणत्व है, यथा तैमिरिक पुरुष को विकीर्ण केशों के समूह की उपलब्धि होती है किन्तु एक-एक केश की नहीं होती, उनके लिए परमाणुवत् एक केश अतीन्द्रिय है। [अवयवी अवयव से अर्थान्तर है इसका प्रतिषेध कर आचार्य इस वाद का निराकरण करते हैं कि गुणी गुण से अन्य द्रव्य है। .. Pr ३ १ अनेकाश्रयसंयोगापेक्षायां दशामात्रे संहते पट उपलभ्येत । न वाक दाचिदुपलभ्येत मध्यपर- भागानाम् इन्द्रियेणासंनिदर्षात् । क्रमसनिकर्षेच [अवयवानाम्] चक्षुःस्पर्शनयोर् [नादयविबुद्धिः स्यात् । क्रमेण अवयविबुद्धेर्] अक्यवेषु तद्बुद्धिः। अलातचक्रवत् । ' भिन्नरूपजातिक्रियेषु च तन्तुषु पटस्य रूपायसम्भवात् (भिन्नक्रियेषु = अर्ध्वाधोगमनभेदात्) । चिन्नम् अस्य रूपादौति विजातीयारम्भोऽपि स्यात् । अविचित्रे च पाश्वन्तिरे पटस्थादर्शनम् चित्ररूपदर्शनं वा। क्रियापि चित्रेत्यतिचित्रम् । तापप्रकाशभेदे चाग्निप्रभाया आदिमध्यान्तेषु रूपस्पशौं नोपपद्यते। परमाण्वतीन्द्रि त्वेऽपि समस्तानां प्रत्यक्षत्वम् । यथा कार्यारम्भकत्वमू .. २ 3