पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४३२

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अभिधर्मकोश अतः प्रथम ध्यान लोक अग्नि से विनष्ट होता है। वास्तव म प्रथम ध्यान का अपक्षाल विता विचार है । यह चित्त को दग्ध करते हैं और इसीलिये अग्नि के सदृश हैं। द्वितीय ध्यान जल से विनष्ट होता है। वास्तव में इसका अपक्षाल प्रीति है। यह प्रीति प्रश्रन्धि-योग से आश्रय को मृदु बनाती है । अतः यह उदवा-कल्प है। इसीलिए सूत्र की शिक्षा है कि कृत्स्न काय-काठिन्य के अपगम से दुःखेन्द्रिय का निरोध होता है। तृतीय ध्यान वायु से नष्ट होता है। वास्तव में आश्वास-प्रश्वास जो वायु है, इसके अपक्षाल हैं। एक ध्यान के बाह्य अपक्षाल (अर्थात् निर्याण जो ध्यानलोक का संवर्तन करते हैं) उसी प्रकार के हैं जिस प्रकार के आध्यात्मिक अपक्षाल हैं जो इस ध्यान में समापन्न पुद्गल को प्रभा- वित करते हैं (८.पृ. १२६ देखियें)। [२१६] २. तेजो धातु-संवर्तनी आदि के समान पृथिवी-धातु-संवर्तनी क्यों नहीं है ?--- जिसे भाजन कहते हैं वह पृथिवी है । अतः वह अग्नि, जल और वायु से प्रतिपक्षित होती है पृथिवी से नहीं। ३. चतुर्थ ध्यान विनाशशील नहीं है क्योंकि यह अनिंजन है । बुद्ध-वचन है कि यह ध्यान आध्यात्मिक अपक्षालों से रहित है और आनेज्य है। अतः बाह्य अपक्षाल का उस पर प्रभाव नहीं पड़ता और इसलिये वह विनाशशील नहीं है। एक दूसरे मत के अनुसार चतुर्थ ध्यान का अविनाश शुद्धावासकायिक देवों के बल से होता है जिनका यह निवास है । यह देव आरूप्यों में प्रवेश करने में असमर्थ हैं और न अन्यत्र (अधर भूमि में) ही जा सकते हैं। किन्तु चतुर्थ ध्यान का भाजन नित्य नहीं है। वास्तव में यह एक 'भूमि' नहीं है । तारों के समान यह विविध निवासों में विभक्त है। विविध विमानों का जो सत्वों के निवास है सत्वों के साथ उदय-व्यय होता है। (विभाषा, १३४, १), सा च प्रश्रब्धियोगेनाश्रयमृदुकरणादपकल्पा । अतएव च कृत्स्नस्य कायकाठिन्यस्थापगमाद् दुःखेन्द्रियनिरोध उक्तः।--मध्यम, ५८ के अनुसार--८.पू. १५०, १५६ देखिये। ८.११ में हम देखेंग कि अपक्षाल हैं और प्रथम तीन ध्यान से इञ्जित हैं। (४.४६ भी देखिय)। अंगुत्तर, श्लो० १३५:प्रथम ध्यान का कंटक 'सद्द' है; द्वितीय का 'क्तिक विचार' है, तृतीय का 'प्रीति है। चतुर्थ का 'अस्सास-पस्सास' है। कण्टक वह है जो ध्यान को नष्ट करता है, जो ध्यान के प्रतिकूल है (कथावत्यु, २.५), यथा स्त्रीचित्त ब्रह्मचर्यवास का कण्टक है । इसके विपर्यय अपक्षाल एक दोष, एक विपत्ति या एक अभाव है जिसको ध्यान को नितान्त आवश्यकता है। चीनी भाषान्तर = विपत्ति, विपत्ति-नीवरण, महाव्युत्पत्ति २४५, ६६४ में दोष, अभाव (सासाकी के संस्मरण को टिप्पणियाँ देखिये : अपक्षाल, अपक्षल, अपक्षण, अपचार), शिक्षासमुच्चय, १४५ और बोधिसत्वभूमि (बोगिहारा)। आनेज्यमिति । एज कम्पन इत्यस्य (धातुपाठ, १. २५३) धातोरेतद् रूपम् आनेज्यमिति । यदा स्वानिज्यमिति पाठस्तदा इगः (हस्तलिखित पोथियों में, 'तदा इज्यः, 'इगेः' ? धातुपाठ १.१६३ के अनुसार)प्रकृत्यन्तरस्यैतद् रूपं द्रष्टव्यम् ।-४, पृ.१०७, ६. २४ ए, ८.१०१बी वेखिये। परमार्य में यह अधिक है : वह इस भूमि में निर्वाण का लाभ करते हैं। 3 २ ? 3