पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४३३

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पुनः । तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश ४२५ तीन संवर्तनियों का क्रम क्या है ? सप्ताग्निनाद्भिरेकवं गतेभिः सप्तके तेजसा सप्तकः पश्चाद्वायुसंवतंनी ततः १०२ ।। १०२. अग्नि से सात्त, जल से एक और जब इस प्रकार सात जल संवर्तनी हो जाती है तब सात तेज: संवर्तनी होती हैं और तत्पश्चात् वायु संवर्तनी होती है।' [२१५] सात तेजः संवर्तनी जव समनन्तर सात बार होती हैं तब अप्-संवर्तनी होती है । आठवें तेजः संवर्तनीसप्तक के अनन्तर वायु संवर्तनी होती है। वास्तव में यथा व्यानसमापत्ति- विशेष से वहाँ आत्मभाव का लाम करने वाले देवों का स्थिति-विशेप होता है, उसी प्रकार भाजनों का भी स्थिति-विशेप होता है। इस प्रकार ५६ तेजः संवर्तनी, ७ जल संवर्तनी और एक वायु-संवर्तनी होती हैं। अतः प्रज्ञाप्ति का यह वाक्य कि दाभ-कृत्स्न देवों का आयः प्रमाण ६४ कल्प है सक्त है। (३.८० वी)। सप्ताग्निनाद्भिरेकवं गतेभिः सप्तके पुनः । तेजता सप्तकः पश्चाद् वायुतंबर्तनी ततः।। विसुद्धिमग, ४२१ में यही वाद और यही वाक्य प्रयुक्त है : एवं विनल्सलोऽपि च लोको निरन्तरमेव सत्त वारे अग्निना विनस्सति.....यालो परिपुष्णचतुमटिळकप्पायुर्फ सुभकिण्हे विद्धसेन्तो लोकं विनासेति। तस्माद् यदुक्तं प्रज्ञाप्तिभाग्यम् (?) तत् सूक्तं भवति । हस्तलिपित नियां. प्रजाप्तिप्रभाव्यम् : फिन्तु अन्यत्र यह है : प्रज्ञाप्तिभाप्यं कथं तहि नीयने (४. अनुवाद, पृ. १७१) शुआन्-चाड प्रमाप्तिवाद नामक ग्रंय। परनाय : फेन-चिए-जि-नेनन् । ५. -- ..