पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४७

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अभिधर्मकोश ३३ आश्रय पांच विज्ञानकाय हैं, सूक्ष्म विज्ञान मनोविज्ञान है; अथवा विज्ञान अधर या अर्व स्वभूमि के अनुसार औदारिक या सूक्ष्म होता है । भदन्त के अनुसार (१) औदारिक रूप वह है जो पंचेन्द्रिय से ग्राह्य है, अन्य सर्व रूप सूक्ष्म है; (२) 'हीन' का अर्थ अमनाप (-मन को न भाने वाला) है, 'प्रणीत' का अर्थ मनाप ( = मन को भाने वाला) है; (३) दूर रूप वह है जो अदृश्य देश में है, अन्तिक रूप [३५] वह है जो दृश्य देश में है: वैभाषिकों का व्याख्यान सुष्ठ नहीं है क्योंकि अतीतादि रूप स्वशब्द से पहले ही अभिहित हो चुका है। इसी प्रकार वेदना को समझना चाहिए आश्रयवश इनका दूरत्व, अन्तिकत्व होता है। यदि वेदना का आश्रय अदृश्यमान है तो वेदना दूर है, यदि दृश्यमान हैं तो वेदना अन्तिक है । यदि यह कायिकी है तो औदारिक है, यदि चैतिसकी है तो सूक्ष्म है (२.७) । २. आयतन' का अर्थ "चित्त-चैत्त (२.२३) का आयद्वार" है। नैरुक्तिक विधि से 'आयतन' उन्हें कहते है जो चित्त-वैत्त के आय को फैलाते हैं (तन्वन्ति)। [व्याख्या ४५.४] ३. धातु' का अर्थ गोत्र है। यथा वह स्थान अर्थात् पर्वत जहाँ लोह, ताम्र, रजत, सुवर्ण धातुओं के बहु गोत्र पाए जाते हैं 'बहुधातुक' कहलाता है उसी प्रकार एक आश्रय या सन्तान में १८ प्रकार के 'गोत्र' पाए जाते हैं जो १८ धातु कहलाते हैं। अतएव 'गोत्र' से 'आकर' का बोध होता है । चक्षुर्वातु किसका आकर है ? अन्य धातु किसके आकर है? धातु स्वजाति के (स्वस्या जाते.) आकर हैं: पूर्वोत्पन्न चक्षु चक्षु के पश्चिम क्षणों का सभागहेतु (२.५२) है। इस लिए यह चक्षुका आकर, धातु है। किन्तु उस अवस्था में क्या असंस्कृत जो नित्य है धातु नहीं हो सकते? हमारा कहना है कि यह चित्त-चैत्त के आकर है । युआन्-चाङ का अनुवाद-~भदन्त धर्मत्रात । किन्तु व्याख्या [४४.१४] में है-भदन्त अर्थात् स्थविर सौत्रान्तिक अथवा इस नाम का कोई स्थविर सौत्रान्त्रिक । भगवद्विशेष का कहना है कि यह स्थविर धर्मत्रात हैं। हमारा इसमें आक्षेप है। धर्मनात अतीताना- गतास्तित्ववादी हैं। इसलिए यह सर्वास्तिवादी हैं और यहां सौत्रान्तिक अर्थात् दार्शन्तिक का प्रयोजन है। भदन्त धर्मत्रात सर्वास्तिवाद के एक वाद का समर्थन करते हैं जिसका निर्देश आगे चलकर (५.२५) होगा । भदन्त सौत्रान्तिक दर्शनावलम्बी हैं जिनका उल्लेख विभाषा केवल 'भदन्त के नाम से करती है। विभाषा में भदन्त धर्मात का अपने नाम से उल्लेख है । अतः यहां धर्मत्रात से अन्य कोई सौत्रान्तिक स्थविर भिक्षु अभिप्रेत है। जापानो संपादक विभाषा, ७४, ९ का हवाला देते हैं जहां कहा है कि धर्मत्रात यह नहीं स्वीकार करते कि धर्मायतन रूप है (४.४ ए-वो देखिए)। १ विभाषा, ७३, १२ में 'आयतन' शब्द के अर्थ पर २० मत निर्दिष्ट हैं-मध्यमकवृत्ति, पृ.५५२ में पोशणितलक्षण दिया है। अस्थसालिनी, १४०-१ ३. विसापा, ७१, ७ में ११ निर्वचन हैं। यहां पहला निर्वचन दिया है।

'सुवर्णगोत्र' इस पद में गोत्र का अर्थ 'आर' है। असंग, सूत्रालंकार, ३.९ और अनुवादक

ती टिप्पणी। २