पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४८

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प्रथम कोशस्थानः धातुनिर्देश एक दूसरे मत के अनुसार 'चातु' का अर्थ 'जाति' है। १८ धातुओं से १८ पृथक् धर्मों का स्वभावविशेष समझा जाता है। ४. आक्षेप -१. यदि स्कन्ध का अर्थ 'राशि है तो स्कन्ध केवल प्रज्ञप्तिसत् हैं, [३८] द्रव्यसत् नहीं है क्योंकि समुदित, संचित द्रव्य नहीं है यथा धान्यराशि, यथा पुद्गल 11 वैभाषिक कहता है-नहीं, क्योंकि परमाणु स्कन्ध है । इस विकल्प में, जब कि परमाणु का राशित्व नहीं है, यह न कहिए कि स्कन्द का अर्थ 'राशि' है। २. एक दूसरे मत के अनुसार (विभाषा, ७९, ५) स्कन्ध का अर्थ इस प्रकार है- जो अपने कार्य-मार का उद्वहन करता है। अथवा 'स्कन्ध' का अर्थ प्रच्छेद, अववि है; यथा लोक में कहते हैं: “यदि तुम मुझे तीन स्कन्द वापिस करने का वचन दो तो मैं तुम्हें दूंगा" ५ यह दो अर्थ उत्सूत्र हैं। वास्तव में सूत्र में स्कन्द का अर्थ 'राशि' है, अन्य अर्थ नहीं है: “यत्किंचित् रूप अतीत, अनागत, प्रत्युत्पन्न... है यदि यह सब रूप एकत्र हो....।" वैभाषिक सूत्र में उक्त है कि सर्व रूप, अतीत रूप, अनागत रूपादि, इनमें से एक-एक स्कन्ध है यथा इसकी शिक्षा है कि एक एक केशादि द्रव्य पृथ्वीवातु है (नीचे पृ. ४९, नोट . २) । इसलिए बतीत, अनागत आदि रूप का प्रत्येक (परमाणु) द्रव्य 'स्कन्ध' कहलाता है। अतएव स्कन्व द्रव्यसत् हैं, प्रज्ञप्ति-सत् नहीं। [३९] यह अर्थ अग्राह्य है क्योंकि सूत्रवचन है कि "..' यदि यह सर्व रूप एकत्र अभि- संक्षिप्त हो तो यह रूपस्कन्ध है।" ४.सौत्रान्तिकः यदि ऐसा है तो रूपी आयतन-इन्द्रिय और पांच विज्ञानकायों के आलम्बन केवल प्रज्ञप्तिसत् हैं क्योंकि चित्त-चैत्तों की आयद्वारता एक-एक परमाणु- द्रव्य की नहीं होती किन्तु चक्षुरिन्द्रिय-रूपादि परमाणु-संचित की होती है। कहता है: 9 ४ वैभाषिक का मत है कि स्कन्ध, आयतन और धातु द्रव्यसत् हैं; सौत्रान्तिक धातुओं को वन्यसत् और स्कन्ध तथा आयतनों को प्रशस्तिसत्' मानते हैं । वसुबन्धु स्कन्धों को प्रज्ञप्ति- सत्, आयतन तथा धातुओं को द्रव्यसत् मानते हैं। पुद्गलवाद का विचार कोशप्रतिवद्ध पुद्गलप्रकरण में किया गया है । शरवास्की ने इसका अनुवाद दिया है, ऐकेडमी आफ पैट्रोग्राड, १९२०. २ संघभद्र : “यह आक्षेप युक्त नहीं है। स्कन्ध का अर्थ 'राशि नहीं है किन्तु वह जो राशीकृत, संचित हो सकता है। यया लोक में स्कन्ध कन्वे को कहते हैं उसी प्रकार नाम-रूप स्कन्धद्वय हैं जो पडायतन (३.२१) का वहन करते हैं। ४ रूपप्रच्छेद, वेदनाप्रच्छेद ५ परमार्यः “मैं तुमको ३ स्कन्ध वापिस करूंगा।" तिब्बती देयस्कन्यत्रयेण दातव्यम् (?). उत्सून, महाभाष्य, १.पृ.१२, कोलहान, जे० आर० ए० एस० १९०८, पृ० ५०१ । ३ 3 ६