पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अभिधर्मकोश उत्तर--इन परमाणुओं में से प्रत्येक की 'चित्तायद्वारता' होती है, प्रत्येक का विज्ञान- कारणभाव होता है (१.४४-ए-बी ३ से तुलना कीजिये)। यदि आप इस वाद को स्वीकार नहीं करते तो आप समग्न इन्द्रिय के विज्ञान-कारणभाव का निषेध करते हैं क्योंकि विषय-सह- कारिता के बिना इन्द्रिय अकेला विज्ञान का उत्पाद नहीं करता। ५. दूसरी ओर विभाषा (७४ . ११)का यह कथन है: “जब आभिधार्मिक को यह अपेक्षित है कि 'स्कन्ध' आख्या राशि की प्रज्ञप्ति-मात्र है तब वह कहता है कि परमाणु एक धातु, एक आयतन, एक स्कन्ध का प्रदेश है। जब वह स्कन्ध-प्रज्ञप्ति की अपेक्षा नहीं करता तब वह कहता है कि परमाणु एक धातु, एक आयतन, एक स्कन्ध है । वास्तव में प्रदेश में प्रदेशी का उपचार होता है, यथा “पट का एक देश दग्ध है" इसके लिए 'दग्ध पट है' ऐसा कहते हैं। भगवत् ने धर्मों का स्कन्ध, आयतन और धातु ऐसा त्रिविध वर्णन क्यों किया है ? [४०] २० सी-डी. स्कन्धादि त्रय की देशना इसलिए है क्योंकि मोह, इन्द्रिय और रुचि के तीन-तीन प्रकार हैं।' १. मोह या संमोह विविध हैः एक चैत्तों का पिंडतः ग्रहण कर उन्हीं को आत्मतः ग्रहण करते हैं और इस प्रकार संमूढ़ होते है; एक रूपपिंड को ही आत्मतः गृहीत कर संमूढ़ होते हैं; एक रूप और चित्त का पिंडात्मतः ग्रहण कर (पिंडात्मग्रहणतः) संमूढ़ होते हैं। २. श्रद्धादि इन्द्रिय (२. ३ सी-डी), प्रज्ञेन्द्रिय (२.२४ ) त्रिविध हैं-- अधिमात्र (-तीक्ष्ण), मध्य, मृदु । ३. रुचि (अधिमोक्ष) विविध है: एक की संक्षिप्त रुचि होती है, एक की मध्य, एक की विस्तीर्ण स्कन्व-देशना पहले प्रकार के श्रावकों के लिए है जो चैत्तों के विषय में सम्मूढ़ होते हैं, जिनकी इन्द्रियाँ अधिमात्र हैं, जिनकी संक्षिप्त देशना में रुचि होती है। 3 १ आभिधार्मिक सदा स्पष्ट रूप से वैभाषिक से पृथक् निर्दिष्ट नहीं है। २ स्कन्धप्रज्ञप्तिमपेक्षते। प्रकरणपाद, अध्याय ६ (२३.१०, फोलिओ ४७) से तुलना कीजिए : चक्षुर्षातु एक पातु, एक आयतन, एक स्कन्ध में संगृहीत है। परचित्तज्ञान, निरोधज्ञान, मार्गज्ञान को जित कर शेष ७ ज्ञानों से (कोश ७) यह ज्ञेय है। यह एक विज्ञान से विज्ञेय है। यह कामघातु और रूपधातु में होता है। यह भावनाय अनुशयों से प्रभावित होता है (फोश ५ देखिए)। पातुकथापकरण (पी०टी० एस १८९२) पृ०६: चक्खुधातु एकेन खन्धेन एकेनायतनेन एकाय धातुया संगहिता। मोहेन्द्रियरचित्रंथात् स्कन्यावित्रयदेशना ॥ [व्याख्या ४७. ७.१५] विभाषा, ७१, ४ फे अनुसार। 1