पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/५०

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प्रथम कोशस्थानः धातुनिर्देश आयतन-देशना दूसरे प्रकार के लिए है और धातु-देशना तीसरे प्रकार के लिए है। विवादमूलसंसारहेतुत्वात् क्रमकारणात् । चत्तेभ्यो वेदनासंज्ञे पृथक् स्कन्धौ निवेशितौ ॥२१॥ वेदना और संज्ञा पृथक् पृथक् स्कन्ध हैं: अन्य सब चैत्त धर्म (२.२४) संस्कारस्कन्ध (१.१५) में संगृहीत हैं। इसका क्या कारण है ? २१. क्योंकि वह विवाद के मूल हेतु हैं, क्योंकि वह संसार के कारण हैं और स्कन्धों के [४१] क्रम (१.२२ बी) के कारण दो चैत्त-वेदना और संज्ञा--पृथक् स्कन्ध व्यवस्थित होते हैं। १. दो विवाद-मूल हैं २: कामाध्यवसाय (अभिष्वंग) [व्या० ४८. १६ में अध्यवसान] और दृष्टि-अभिष्वंग। इन दो मूलों के प्रधान हेतु यथाक्रम वेदना और संज्ञा हैं । वास्तव में वेदना के आस्वादवश कामाभिष्वंग होता है और विपरीतसंज्ञावश (५. ९) दृष्टियों में अभिष्वंग होता है। २. वेदना और संज्ञा संसार के कारण हैं : जो वेदनागृद्ध है और जिसकी संज्ञा विपर्यस्त है वह संसार में जन्मपरंपरा करता है। ३. जो कारण स्कन्धों के अनुक्रम को युक्त सिद्ध करते हैं उनका निर्देश नीचे (१.२२ बी-डी) होगा। स्कन्धेष्वसंस्कृतं नोक्तमर्यायोगात् क्रमः पुनः । यथौदारिकसंक्लेशभाजनाद्यर्थधातुतः ॥२२॥ असंस्कृत जो धर्मायतन और धर्मधातु (१.१५ डी) में संगृहीत है, स्कन्धों में संगृहीत क्यों नहीं हैं ? २२ ए-बी. असंस्कृत स्कन्धों में वर्णित नहीं है क्योंकि अर्थ का योग नहीं है। २ स्कन्ध-देशना तीक्ष्णेन्द्रिय (प्रज्ञेन्द्रिय) पुद्गलों के लिए है। यथा--यद् भिक्षो न त्वं स ते धर्मः प्रहातव्यः। आज्ञातम् भगवन् [व्याख्या, भगवन्नित्याह] । कथमस्य भिक्षो संक्षिप्तेनोक्तार्य- माजानासि । रूपं भदन्त नाहं स मे धर्मः प्रहातव्यः। व्याख्या ४८.२] तीन प्रकार की इन्द्रियों के अनुरूप तीन प्रकार के श्रावक हैं--उद्घटितज्ञ, अविपंचितज्ञ व्याख्या में विपंचितज्ञ], पदंपरम [व्याख्या में पदपरम] (पुग्गल- पत्ति, पृ० ४१ सूत्रालंकार, अनुवाद पृ.१४५)। [व्याख्या ४७.३४] १ विवादमूलसंसार [कारणात्] क्रमकारणात् । [चत्तेभ्यो वेदनासंज्ञे पृथक् स्कन्धौ व्यवस्थिते ।। धर्मस्कन्ध, ९, १०:विभाषा, ७४, १४. ६ विवादमूल दोध, ३.२४६ आदि में। 3 [स्कन्धेष्वसंस्कृतं नोक्तम्] अर्यायोगात् विभाषा, ७४, १०० ३