पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

..... ..... . अभिधर्मकोश १.पांच स्कन्धों में से किसी में भी असंस्कृत अन्तर्नीत नहीं हो सकता है क्योंकि यह रूप- स्वभाव, वेदनास्वभाव. • नहीं है । २. असंस्कृत को षष्ठ स्कन्ध भी नहीं कह सकते। इसके साथ स्कन्ध के अर्थ का अयोग है क्योंकि स्कन्ध का अर्थ 'राशि' 'समुदाय-लक्षणत्व' है। रूप के सम्बन्ध में सूत्र ने जो कहा है वह असंस्कृत के सम्बन्ध में नहीं कहा जा सकता : "यदि अतीतादि. . सर्व असंस्कृत को एकत्र करें तो असंस्कृतस्कन्ध होगा" क्योंकि असंस्कृत में अतीतादि विशेष का अभाव है। [४२] ३. पुन: उपादानस्कन्ध (१.८ ए)संक्लेशवस्तु को ज्ञापित करता है; 'स्कन्ध' से संक्लेशवस्तु (सासव संस्कृत) और व्यवदान-वस्तु (अनानव संस्कृत-~~मार्ग)दोनों ज्ञापित होते हैं। इसलिए असंस्कृत जो न संक्लेशवस्तु है और न व्यवदान-वस्तु, उपादानस्कन्धों में या स्कन्धों में संगृहीत नहीं हो सकता। ४. एक मत के अनुसार यथा घट का उपरम घट नहीं है उसी प्रकार असंस्कृत जो स्कन्धों का उपरम या निरोध है स्कन्ध नहीं (विभाषा, ७४, १६)।--किन्तु इस युक्ति के अनुसार आयतन और धातु में भी असंस्कृत व्यवस्थापित न होगा। हम स्कन्धों का लक्षण बता चुके हैं। अब स्कन्धों के क्रम का निरूपण करते हैं। २२ वी-डी. औदारिकभाव, संक्लेश-भाव, भाजनत्व आदि से तथा अर्थधातुओं को दृष्टि से भी स्कन्धों का क्रम युक्त है।' १. सप्रतिध होने से (१.२९ वी) स्कन्धों में रूप सबसे औदारिक है। अरूपी स्कन्धों में प्रचार की औदारिकता से वेदना सबसे औदारिक है: वास्तव में हस्तपादादि में वेदना का व्यपदेश होता है । अन्तिम दो स्कन्धों से संज्ञा औदारिक है। विज्ञान सर्वसूक्ष्म है। संस्कार- स्कन्ध विज्ञानस्कन्ध से औदारिक है-अतः स्कन्धों का अनुक्रम क्षीयमाण औदारिकता के क्रम के अनुसार है। २. अनादि संसार में स्त्री-पुरुष अन्योन्य रूपाभिराम होते हैं क्योंकि वह वेदनास्वाद में आसक्त हैं । यह आसक्ति संज्ञा-विपर्यास से प्रवृत्त होती है । संज्ञा-विपर्यास संस्कार- भूत क्लेशों के कारण होता है और यह चित्त (विज्ञान) है जो दलेशों से संक्लिष्ट होता है । अतः संकलेश की प्रवृत्ति के अनुसार स्कन्धों का क्रम है। {४३] रूप भाजन है, वेदना भोजन है, संज्ञा व्यंजन है, संस्कार पक्ता है, विज्ञान या चित्त भोक्ता है। स्कन्धों के क्रम को युक्त सिद्ध करने में यह तीसरी युक्ति है। ४. अंसतः, धातुतः (२. १४)विचार करने पर हम देखते हैं कि कामघातु रूप से. अर्थात् पान कामगुणों से प्रभावित, प्रकर्पित है (धर्मस्कन्व, ५. १० , विभाषा, ७३, २, कथावत्यु, फमः पुनः। ययौदारिकसंपलेशभाजनाद्यर्यधातुतः ।। व्याख्या ४८.२६] 3 विभापा, ७४, २२ के अनुसार।